उत्तरप्रदेश विधानसभा (UP Assembly election) अब समापन की ओर अग्रसर है. अब तक के पांच चरणों में 292 सीटों के लिए मतदान हो चुका है और अगले दो चरणों में बाकी के 111 सीटों पर 3 मार्च और 7 मार्च को मतदान होना है. प्रदेश में किसकी सरकार बन रही है और किसकी लुटिया डूब रही है, यह तो 10 मार्च को ही पता चलेगा जिस दिन परिणाम आएगा. सभी दलों ने अपने प्रमुख प्रचारकों को जिन्हें स्टार प्रचारक भी कहा जाता है, चुनाव प्रचार में उतार रखा है. पर आज हम उनकी बात करते हैं जो बड़े नेता तो हैं पर उन्हें किन्हीं कारणों से घर पर ही बैठे रहना पड़ा. बात है प्रदेश की सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (BJP) की और ये बड़े नेता हैं मेनका गांधी (Maneka Gandhi) और उनके पुत्र वरुण गांधी (Varun gandhi). दोनों बीजेपी के सांसद हैं और पूर्व में उनका नाम बीजेपी के स्टार प्रचारकों की सूची में होता था. बीजेपी ने मां-बेटे की जोड़ी को पार्टी में शामिल ही इसलिए किया था क्योंकि दोनों का ताल्लुक गांधी परिवार से था और बीजेपी की उनसे उम्मीद थी कि वह इसी परिवार के एक और मां-बेटे की जोड़ी – सोनिया और राहुल गांधी – की धार को उत्तर प्रदेश में कम करेंगे. सोनिया और राहुल गांधी की धार तो ख़त्म हो गई, उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि पूरे देश में, जिसमें मेनका और वरुण गांधी का कोई योगदान नहीं था.
पहली बार ऐसा हुआ है जब बीजेपी ने मां-बेटे की सेवाएं चुनाव में नहीं ली
पर 2004 के बाद जब कि इन्हें बीजेपी में शामिल किया गया था, ऐसा पहली बार हुआ है कि पार्टी ने चुनाव प्रचार में उनकी सेवाएं नहीं ली है. सुल्तानपुर और पीलीभीत में भी नहीं जहां से दोनों सांसद हैं. ऐसा भी नहीं है कि बीजेपी उत्तर प्रदेश में चुनाव बड़े आराम से जीतने जा रही है. टक्कर कांटे की है, भले ही समाजवादी पार्टी के मुकाबले पलड़ा बीजेपी की तरह झुकता दिख रहा है.सुल्तानपुर संसदीय क्षेत्र में छह और पीलीभीत संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत पांच विधानसभा क्षेत्र हैं. ऐसा कतई नहीं है कि इन 11सीटों पर बीजेपी की जीत सुनिश्चित है याफिर इन 11 सीटों के परिणाम से बीजेपी बेअसर रहेगी.दोनों क्षेत्रों में माँ-बेटे का प्रभाव भी है. तो फिर ऐसा क्या हो गया कि बीजेपी ने रिस्क ले कर भी मेनका और वरुण गाँधी को चुनाव प्रचार से दूर रखने का फैसला किया?
बीजेपी में शामिल होने के बाद मेनका और वरुण गांधी ने पार्टी को निराश नहीं किया, मेनका 2004 से अब तक लगातार चार बार और वरुण 2009 से लगातार तीन बार बीजेपी के टिकट पर चुनाव जीत चुके हैं. 2014 में जब केंद्र में बीजेपी की सरकार बनी तो उसमे मेनका गाँधी को मंत्री बनाया गया और वरुण गाँधी पार्टी सबसे कम उम्र के राष्ट्रीय महासचिव बने. पर पिछले ढाई-तीन वर्षों में उनके रिश्तों में खटास आ गयी है, खासकर किसान आन्दोलन शुरू होने के बाद.
मर्यादा से बाहर जाकर कृषि कानूनों का विरोध किया
वरुण गाँधी एकलौते ऐसे बीजेपी के नेता नहीं थे जो विवादित कृषि कानूनों के विरोध में थे. प्रजातंत्र में इसकी अपेक्षा भी नहीं की जाती कि पार्टी के सभी सांसद की सोच एक हो. पर जहां अधिकतर नेताओं ने पार्टी की मर्यादा के अन्दर रह कर ही कृषि कानूनों का विरोध किया, वरुण गांधी अपने चचेरे भाई राहुल गांधी की भाषा का प्रयोग करते देखे गए, बस राहुल गांधी की तरह उन्होंने नरेन्द्र मोदी सरकार पर सिर्फ पूजीपतियों के लिए काम करने का आरोप नहीं लगाया. इतना तो स्पष्ट हो गया था कि बीजेपी के सब्र का बांध टूट रहा है, क्योकि बीजेपी ने नवगठित राष्ट्रीय कार्यकारिणी में न तो मेनका को और ना ही वरुण गांधी को शामिल किया, न ही चुनाव प्रचार में उन्हें कोई ड्यूटी दी गयी.
इसका सबसे बड़ा कारण था वरुण गांधी का सपना कि चूंकि वह तीन बार के सांसद हैं और बड़े खानदान से आते हैं, उन्हें केन्द्रीय मंत्री बनाना चाहिए था. नहीं बनाया गया तो फिर वह नाराज़ हो गए. मेनका गांधी को जब 2019 लोकसभा चुनाव के बाद केंद्रीय मंत्रीमंडल में शामिल नहीं किया गया तो इसका एक बड़ा कारण था कि बीजेपी के एजेंडा से अधिक उन्हें अपना एजेंडा प्रिय था.
वरुण क्यों बने हुए हैं बीजेपी में?
अपने बचाव में वरुण गांधी शायद यह कह सकते हैं कि वह नैतिकता की राजनीति करते हैं और नैतिकता पर कोई समझौता उन्हें मंज़ूर नहीं है. अगर नैतिकता से समझौता उन्हें नामंजूर है तो फिर क्या कारण है कि वह बीजेपी में अभी तक बने हुये हैं. बीजेपी की कोई नीति उन्हें नहीं भाती और ना ही अब बीजेपी को वरुण गांधी भाते हैं. तो क्या वरुण गांधी बीजेपी में सिर्फ इसलिए टिके हुए हैं कि उनके सांसद की कुर्सी पर आंच ना जाए. अगर ऐसा है तो फिर पार्टी की नीतियों के विरुद्ध जाना और अनुशासन की सीमा लांघना और फिर भी पार्टी में बने रहना किस नैतिकता के मूल्य को दर्शता है? विधानसभा चुनावों से माँ-बेटे को अलग थलग कर देने से अब लगने लगा है कि बीजेपी को अब उनकी उपयोगिता नहीं है और 2024 के लोकसभा चुनाव में मेनका गांधी और वरुण गांधी को बीजेपी शायद टिकट भी नहीं देगी.
वरुण गांधी शायद अपने खानदानी कांग्रेस पार्टी में शामिल हो जाएं और वहां उनका बड़े जोरशोर और सम्मान से उनका स्वागत भी किया जाएगा, क्योंकि वह अपने परिवार की खिलाफ ना तो चुनाव प्रचार करते हैं ना ही कुछ बोलते हैं. वरुण को अपनी दीदी प्रियंका गांधी से बहुत स्नेह है. और अगर ऐसा हुआ, जिसकी पूरी सम्भावना है, तो फिर मेनका गांधी का क्या होगा. वह तो कांग्रेस पार्टी में जाने से रही. उनका लम्बे समय से अपनी जेठानी सोनिया गांधी से बोलचाल भी बंद है और पूर्व में उन्होंने सोनिया गांधी को अपने खिलाफ इंदिरा गांधी को भड़काने का आरोप लगाया था जिसके बाद इंदिरा गांधी ने अपने घर से मेनका गांधी को निकाल दिया था.
तो क्या मेनका गांधी राजनीति से संन्यास लेंगी?
मेनका 1984 से लगातार लोकसभा चुनाव लड़ती रही हैं. 1984 और 1991 को छोड़कर वह अब तक आठ बार लोकसभा चुनाव जीत चुकी हैं, जिसमें से पिछले सात चुनावों में लगातार जीत उनके नाम है. इस दौरान वह पीलीभीत, अनोला और सुल्तानपुर से चुनाव लड़ी हैं. वरुण गांधी को तो कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने से कोई संकोच नहीं होगा, तो फिर क्या मेनका गांधी चुनावी राजनीती से सन्यास ले लेंगी या फिर निर्दलीय चुनाव लड़ेंगी?
सीएम योगी ने यूपी को सबसे विकसित और सुरक्षित राज्य बनाया- बीजेपी नेता राजेश्वर सिंह
भविष्य के गर्भ में क्या है यह तो नहीं बताया जा सकता, पर इतना तो तय है कि बीजेपी को अब गांधी परिवार के किसी सदस्य की जरूरत नहीं है. बिना गांधी के पीलीभीत और सुल्तानपुर में बीजेपी की क्या हैसियत है,बहरहाल इसका अनुमान 10 मार्च को ही लग पाएगा. अगर इन क्षेत्रों में बीजेपी 2017 की ही तरह प्रदर्शन करती है, जबकि पार्टी ने पीलीभीत संसदीय क्षेत्र के सभी पांचों सीट और सुल्तानपुर संसदीय क्षेत्र की छः में से सिर्फ इसौली को छोड़ कर बांकी के पांच सीटों पर जीत हासिल की थी, तो फिर इतना मान कर चलना होगा कि मेनका और वरुण गांधी का अब बीजेपी में कोई भविष्य नहीं बचा है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)