जिन्ना पर लिखी किताब जसवंत सिंह के राजनीतिक पतन का कारण बनी थी। किताब छपने के बाद भाजपा ने उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया था। दस महीने बाद उनकी पार्टी में वापसी हुई थी, लेकिन उनकी पुरानी हैसियत फिर कभी वापस नही हो सकी। पार्टी उन्हें लगातार हाशिये पर डाले रही। 2014में टिकट देने से भी इनकार कर दिया। इस चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर वह बाड़मेर से असफल हुए थे। एक बार फिर पार्टी से उनका निष्कासन हुआ । फिर सिर की चोट और लम्बी बीमारी के बीच वह लगभग भुला दिए गए।
भाजपा के जसवंत सिंह दूसरे बड़े नेता थे जिनके लिए जिन्ना का जिन्न राजनीतिक अवसान का कारण बना। भाजपा के शिखर पुरुष रहे लाल कृष्ण आडवाणी ने भी ” जिन्ना प्रेम ” की बड़ी कीमत चुकाई थी। 4 जून 2005 को जिन्ना की मजार पर रखे रजिस्टर पर आडवाणी के उदगारों के साथ ही खुद उनकी राजनीतिक पतनयात्रा की इबारत दर्ज हो गई थी। पार्टी अध्यक्ष पद से उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था। यद्यपि 2009 के चुनाव में उन्हें अगुवाई का मौका मिला लेकिन असफलता के साथ ही संघ नए नेतृत्व की तलाश में जुट गया था।
जसवंत सिंह की लंबी संसदीय पारी चली। चार बार लोकसभा और पांच बार राज्यसभा के सदस्य रहे।बाजपेयीजी की सरकारों में उनकी प्रभावी उपस्थिति थी। रक्षा, विदेश और वित्त जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों की जिम्मेदारियां संभालते हुए वह बराबर चर्चा में रहे। उनके राजनीतिक करियर की सबसे दुर्भाग्यपूर्ण घटना कंधार काण्ड था, जब अपनी सरकार के फैसले को अंजाम देने की उनपर जिम्मेदारी आयी। तब वह विदेश मंत्री थे। एयर इण्डिया के विमान के अगवा यात्रियों को छुड़ाने के एवज में भारतीय जेलों में बंद तीन आतंकवादियों को लेकर 31 दिसम्बर 1999 को उन्हें कंधार जाना पड़ा था। ये थे कुख्यात मौलाना मसूद अजहर, अजमद जरगर और शेख अहमद उमर।
2004 में भाजपा की पराजय और सत्ता से बेदख़ली के बाद जसवंत सिंह के पास लिखने-पढ़ने के लिए पर्याप्त समय था। भारत के विभाजन के कारणों की तलाश में इस विभाजन के खलनायक जिन्ना की ओर उनका ध्यान गया और फिर विभाजन कथा जिन्ना की राजनीतिक जीवनी के तौर पर सामने आई। इस किताब को लिखने में जसवंत सिंह ने पांच वर्ष खपाये। इसके लेखन के दौरान हुई टोका-टाकी और संभावित परिणामों का जसवंत सिंह ने अपने जीवनकाल में जिक्र किया था। उनके अनुसार,” कुछ मित्रों ने टोका भी था। मत लिखो इस विषय पर बहुत सारी स्मृतियाँ और भावनाएँ हैं। भिन्न-भिन्न प्रकार के आग्रह भी हैं। न मालूम पार्टी क्या कर बैठे ? जसवंत सिंह ने याद किया था,” मैंने पार्टी के सहयोगियों से बताया भी था कि इस विषय (जिन्ना) पर मैं कार्यरत हूँ। किसी ने नही रोका। यह जरूर सलाह दी गई कि अभी यह चुनाव है। फिर वह चुनाव है। उसके बाद ही छपवाना। विचित्र सा लगा था। पर बात मान ली। मन में प्रश्न जरूर उठा था कि ऐसा भी क्या संकोच। यह तो विचारों की अभिव्यक्ति पर ताला लगाने के सामान होगा।
17 अगस्त 2009 को जसवंत सिंह की पुस्तक ” जिन्ना ; भारत विभाजन के आईने ” के हिंदी-अंग्रेजी संस्करणों का विमोचन हुआ था। 19 अगस्त को पार्टी अध्यक्ष की बेहद संक्षिप्त फोन कॉल थी। सूचना देने के लिए ,” आप पार्टी से निष्कासित किये जाते हैं।” पुस्तक की कुछ प्रतियाँ फूंकी गईं। गुजरात में किताब पर पाबंदी लगा दी गई। नरेंद्र मोदी तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे। पार्टी जिसके संस्थापकों में वह खुद शामिल थे और साथी जिनके साथ पार्टी की तरक्की में उनका भी योगदान था, सब हमलावर हो गए। पार्टी की प्रतिक्रिया ” हमने सही तरीके से सही वक्त पर उनका निष्कासन किया है ” उन्हें हमेशा सालती रही। जसवंत सिंह ने जबाब में लिखा था,” हम आज भी अगर समझ लें, सीख लें यह ‘सीख ‘ कि यदि दक्षिण एशियाई उप महाद्वीप में शांति स्थापित नही करेंगे तो हम बहुत जल्दी पाश्चात्य शक्तियों के गुलाम हो जाएंगे। समय अधिक नही है। वक्त पर काम करने की जरूरत है। चुपचाप हाथ पर हाथ धरे तो नही बैठे रह सकते। रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था,” समर शेष है, नही केवल पाप का भागी केवल व्याघ् , जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।” परन्तु हम सब जो आज मौन हैं, जो चुप या निष्पक्ष हैं या सोचते हैं कि हम तो तटस्थ हैं, तो मानकर चलिए कि समय उनका भी अपराध लिखेगा।”
जसवंत सिंह ने जिन्ना पर अपनी लिखी किताब को दक्षिण एशियाई उपमहाद्वीप की ग्रहशांति का यज्ञ बताया था। पार्टी से अपने निष्कासन को इस यज्ञ में उन्होंने अपनी आहुति माना था। विभाजन के कारणों की तलाश में उन्होंने जिन्ना पर किताब लिखी थी। इसके चलते पार्टी से निष्कासित होने पर उन्होंने लिखा था,” मैं कहाँ ढूंढता फिर रहा था – यह तो हमारी मानसिकता थी, जिसने हमें बाँटा..! नमन।