अफगानिस्तान में तालिबान शासन शुरू होने के बाद से ही स्थितियां काफी नाजुक बनी हैं। खासकर अपने कट्टरपंथी रवैये की वजह से तालिबान को आर्थिक मोर्चे पर परेशानियों का सामना करना पड़ा है। हालांकि, इन सबके बावजूद यह संगठन अफगानिस्तान की एक अलग पहचान और शरिया कानून लागू करने के मकसद को पूरा करने की कोशिश में है। चौंकाने वाली बात यह है कि अपने इन लक्ष्यों को पूरा करने में उसका तनाव पाकिस्तान के साथ भी बढ़ता जा रहा है। इसका सबसे ताजा उदाहरण दो दिन पहले देखने को मिला, जब डूरंड रेखा पर पाकिस्तान की तरफ से लगाए गए बाड़ों को तालिबान ने हटा दिया। तालिबान इससे पहले भी कुछ और मोर्चों पर पाकिस्तान के खिलाफ खड़ा दिखाई दिया है।
उधर, 15 अगस्त को अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्जा करने के बाद से ही तालिबान लगातार भारत से संपर्क साधने की कोशिश कर रहा है। इस कड़ी में कुछ खबरें जून 2021 में आई थीं। हालांकि, भारत और तालिबान के बीच आधिकारिक बैठक की पहली खबर अगस्त में मिली, जब कतर में भारत के राजदूत ने तालिबान के वरिष्ठ नेता शेर मोहम्मद अब्बास स्टानेकजई से मुलाकात की थी। तब स्टानेकजई की तरफ से कहा गया था कि तालिबान सरकार भारत से बेहतर राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रिश्ते चाहती है। इसके बाद भी जब भारत ने अफगानिस्तान को मानवतावाद के चलते दवाएं और जरूरत के सामान भेजे थे, तब भी तालिबान ने कहा था कि भारत के साथ उसके रिश्ते काफी जरूरी हैं।
क्यों पाकिस्तान से बढ़ रहीं अफगान तालिबान की दूरियां?
1. अंतरराष्ट्रीय पहचान
अफगानिस्तान में अगस्त के मध्य में तालिबान का शासन स्थापित होने के बाद से ही पाकिस्तान लगातार इस संगठन का समर्थन करता रहा है। हालांकि, दोनों के रिश्तों में पहली बार दरार सितंबर में ही देखने को मिली थी। तब तालिबान के लड़ाकों ने तोरखाम बॉर्डर क्रॉसिंग से आ रहे पाकिस्तानी ट्रकों को रोक-रोक कर उनसे पाकिस्तान के झंडे को उतार दिया था। इस घटना के बाद इमरान खान सरकार की तरफ से नाराजगी जाहिर की गई थी।
2. डूरंड लाइन को लेकर बढ़ा विवाद
सितंबर की घटना दोनों के रिश्तों में खटास पैदा करने वाला कोई पहला मामला नहीं था। इसके बाद भी तालिबान ने लगातार पाकिस्तान के साथ सीमा विवाद पर बयान देना जारी रखा है। दरअसल, 1893 में अंग्रेजों ने भारत और अफगानिस्तान के बीच डूरंड लाइन नाम से एक सीमा तय की थी। 1947 में अलग पाकिस्तान के बनने के बाद से इसे लेकर अफगानिस्तान सवाल उठाता रहा है। तालिबान भी इस रेखा को स्थायी अंतरराष्ट्रीय बॉर्डर बनाने के सख्त खिलाफ रहा है। तालिबान का कहना है कि 2670 किमी लंबी डूरंड लाइन की वजह से अफगानिस्तान के कई पश्तून बहुल पुराने इलाके पाकिस्तान के क्षेत्र में हैं, जिसे वापस अफगानिस्तान में लेना जरूरी है। तालिबान के अधिकतर नेता भी इसी पश्तून वर्ग से हैं।
दो दिन पहले ही जब पाकिस्तान की सरकार ने डूरंड लाइन पर बाड़े लगवाना शुरू किया, तो तालिबान के लड़ाकों ने इन बाड़ों को भी हटा दिया। इस मामले में अफगानिस्तान के रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता इनायातुल्ला ख्वाराज्मी ने कहा था कि तालिबान की सेना ने पाकिस्तानी सैन्यबल को पूर्वी नंगरहार में अवैध सीमा बाड़े लगाने से रोका। इस मामले में जहां पीएम इमरान खान या उनके मंत्रियों की तरफ से अब तक कोई बयान नहीं आया है, वहीं विपक्षी पार्टियों ने इसे लेकर पाक सरकार पर हमले तेज कर दिए हैं। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) के नेता रजा रब्बानी ने तो यहां तक कह दिया कि उन्हें समझ नहीं आता कि जब तालिबान ने पाकिस्तान के साथ सीमा को मान्यता देने से ही इनकार कर दिया है, तो प्रधानमंत्री खान की सरकार उसका समर्थन क्यों कर रही है।
3. तालिबान का गुस्सा- अब तक अंतरराष्ट्रीय मान्यता नहीं दिला पाया पाकिस्तान
पाकिस्तान ने अमेरिका और तालिबान के बीच 2020 में सेना वापसी को लेकर हुए समझौते में अहम भूमिका अदा की थी। इतना ही नहीं इसी हफ्ते हुई इस्लामिक देशों के संगठन- ओआईसी की बैठक में भी पाकिस्तान ने तालिबान को मान्यता देने की मांग उठाई। हालांकि, उसके प्रयासों से अब तक अफगानिस्तान में तालिबान को खास सफलता नहीं मिली है। खुद पाकिस्तान ने भी आधिकारिक तौर पर तालिबानी शासन को मान्यता नहीं दी है। जानकारों का मानना है कि तालिबान और इस्लामाबाद के बीच तनाव बढ़ने का ये एक बड़ा कारण है।
4. हक्कानियों को पाकिस्तान का समर्थन
पाकिस्तान और तालिबान के बीच विवाद का दायरा सिर्फ अंतरराष्ट्रीय मुद्दों तक ही सीमित नहीं है। कुछ घरेलू मामलों की वजह से भी दोनों के बीच रिश्तों में कड़वाहट पैदा हुई है। विशेषज्ञों का कहना है कि कुछ पुराने तालिबानी कमांडर हक्कानी नेटवर्क के उभार के पीछे पाकिस्तान का हाथ मानते हैं। उन्हें शक है कि पाकिस्तान हक्कानी गुट का समर्थन कर तालिबान में अपनी पैठ बनाना चाहता है और गुट को नियंत्रित करना चाहता है।
पाकिस्तान में अफगान और पश्तून मामलों के जानकार आलम महसूद के मुताबिक, “1990 में सोवियत सेना के जाने के दौरान पाकिस्तान ने अफगानिस्तान के नियंत्रण के लिए गुलबुद्दीन हिकमतयार का समर्थन किया था। अब वह हक्कानी का समर्थन कर रहा है और अंतरिम सरकार में उसे कई अहम पद भी दिला चुका है। ऐसे में पुराने तालिबानी नेताओं ने पाकिस्तान के प्रति नाराजगी जाहिर करना भी शुरू कर दिया है।”
5. अफगानिस्तान की अलग पहचान और जनता का दबाव
अफगानिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मान्यता दिलाने की पाकिस्तान की कोशिशों के बावजूद अफगान नागरिक यही मानते हैं कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई और वहां की सेना अफगानिस्तान के घरेलू मामलों में दखल दे रही है। देश में तालिबान का राज आने से लेकर अंतरिम सरकार बनने तक पाकिस्तान के आईएसआई चीफ के लगातार अफगानिस्तान जाने की खबरें भी सामने आती रही हैं, जिससे अफगान जनता काफी नाराज है। इतना ही नहीं पाकिस्तान ने तालिबान का राज आने के बाद से अब तक कई बार अफगानिस्तान से लगती अपनी सीमाओं को बंद किया है। इससे अफगानी अर्थव्यवस्था पर असर पड़ा है और वहां जरूरत के सामान पहुंचने में भी मुश्किल आई है।
तालिबान के हिंदू-सिखों के साथ बैठक के क्या मायने?
अफगानिस्तान में तालिबान का राज आने के बाद से ही यहां रहने वाले अल्पसंख्यक समुदायों में डर फैला है। इसी के चलते हजारों की संख्या में यहां रहने वाले हिंदू, सिख और शिया समुदाय के लोग दूसरे देशों में शरण लेने के लिए मजबूर हुए हैं। रिपोर्ट्स के मुताबिक, भारत को अब तक 60 हजार से ज्यादा अफगान नागरिकों के वीजा आवेदन मिल चुके हैं। ये आवेदन भारत में छह महीने की अस्थायी शरण के लिए मांगे गए हैं। शरण मांगने वालों में ज्यादातर हिंदू और सिख समुदाय के लोग ही हैं।
भारत में शरणार्थियों की बढ़ती संख्या को लेकर लगातार चिंता जताई जाती रही है। इस बीच तालिबान नेता और अफगानिस्तान की अंतरिम सरकार के उपप्रधानमंत्री मौलवी अब्दुल कबीर की अफगानिस्तान छोड़कर जाने वाले हिंदू और सिख नेताओं के साथ बैठक को भारत के लिए सकारात्मक इशारे के तौर पर देखा जा रहा है। बताया गया है कि तालिबान ने कुछ हफ्तों पहले ही काबुल के पूर्व सांसद नरेंदर सिंह खालसा को भारत से वापस बुलाकर चर्चा करने का न्योता दिया था।
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बताया गया है कि तालिबान ने इस बैठक के बाद हिंदू-सिख नेताओं को भरोसा दिया है कि वे अफगानिस्तान में शांति से रहेंगे और देश के विकास में जरूरी योगदान देंगे। तालिबान ने अल्पसंख्यकों को सुरक्षा देने के साथ उनके लिए सही नीतियां बनाने की बात भी कही है। माना जा रहा है कि अगर तालिबान अपने दावों पर कायम रहा, तो भारत में फंसे शरणार्थी वापस अफगानिस्तान लौटेंगे और इससे अफगान सरकार और भारत सरकार के बीच बातचीत भी पटरी पर आने की संभावना है।