ससुराल बना था निराला की साहित्य साधना का केंद्र, जन्म जयंती 21 को

महाप्राण निराला की जन्म जयंती (21 फरवरी) पर विशेष

रायबरेली छायावाद के प्रमुख स्तंभ और हिंदी साहित्य में अपने विद्रोही स्वर से आमजन की आवाज़ को अभिव्यक्त करने वाले पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने हिंदी साहित्य में अमिट छाप छोड़ी है। उन्होंने अपनी रचनाओं से जीवन के विषाद, निराशा और अंधकार को करुणा, आशा और प्रकाश में बदल दिया।

पश्चिम बंगाल में मेदिनीपुर जिले के महिषादल में 21 फरवरी 1896 को जन्मे निराला हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर है। जिनका ऋणी आज भी समाज है। लेकिन मूलरूप से बांग्लाभाषी सूर्यकांत त्रिपाठी की हिंदी साहित्य रचना को समृद्ध करने में उनके ससुराल की भी प्रमुख भूमिका रही है। यहां उन्होंने बेटी के वियोग में सरोज स्मृति जैसी रचना लिखी तो वहीं परम् मित्र कुल्ली भाट पर ही एक कालजयी उपन्यास लिख डाला। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की रचना के पीछे उत्तर प्रदेश के रायबरेली में डलमऊ स्थित उनकी ससुराल और वहां के सुन्दर गंगा घाटों की कहानी है।जिला मुख्यालय से 30 किमी दूर डलमऊ कस्बा निराला की ऐसी साहित्यिक यात्रा का साथी रहा है जिसकी शुरुआत ही यहीं से होती है। यहीं से हिन्दी जगत के अप्रतिम निराला का अभ्युदय हुआ।   

ससुराल बना साहित्यिक साधना का केन्द्र

ससुराल होने के कारण निराला का डलमऊ आना जाना लगा रहा। गंगा किनारे के घाट उन्हें सदैव आकर्षित करते रहे। यहीं के गंगा घाट पर लिखी गई कृति ‘बांधो न नावं इस ठावँ बंधु, पूछेगा सारा गांव बंधु’ उनकी कालजयी रचना है। डलमऊ के किले से संबंधित आख्यानों के परिप्रेक्ष्य में उन्होंने ‘प्रभावती’ उपन्यास लिखा। बेटी सरोज के असामयिक मौत पर इन्ही गंगा घाटों पर उन्होंने ‘सरोज स्मृति’ की रचना कर डाली और अपनी पीड़ा को इन शब्दों में उतारा ‘धन्य मैं पिता निरर्थक तेरे हित कुछ कर न सका’। 1929 में पास के ही पखरौली के जमींदार द्वारा एक गरीब लडक़ी पर किए गए अत्याचार को भी उन्होंने डलमऊ के गंगा घाट पर बैठकर अपनी लेखिनी पर उतारा और ‘अलका’ नामक उपन्यास की रचना कर डाली।

डलमऊ के गंगा घाट और यहां के लोगों ने उन्हें बहुत प्रभावित किया जो कि उनके रचनाओं में परिलक्षित होते हैं। उनकी रचनाओं के चतुरी चमार और कुल्ली भाट इसी डलमऊ के वास्तविक पात्र है जिनसे निराला प्रभावित थे और अपनी रचनाओं में उन्होंने उनकी आवाज को जगह दी। डलमऊ के गंगा घाट पर बैठना और गंगा दर्शन के साथ रचना उनकी नित्यकर्म था। यहीं के घाट की सीढ़ियां है जो निराला को माता की गोद का सुख देते है और निराला इन्ही पर ‘घाट का कर्ज’ की रचना कर देते हैं। निस्संदेह पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी को निराला बनाने में डलमऊ का सबसे बड़ा योगदान है। उनकी रचनाशीलता यही से आरंभ होकर और यहीं आकार भी लेती है। प्रेम, विरह, सुख, दुःख, विद्रोह और प्रगति सब निराला को यही से मिलते हैं। डलमऊ निराला के जीवन के साथ रचा बसा तो है ही लेकिन उनकी साहित्यिक यात्रा का आरंभ से ही साक्षी रहा है।

मित्रता ने भी डाला था प्रभाव

निराला आम जन के रचयिता थे, उनकी रचनाओं के पात्र उनके अपने होते थे जिनमे उनके मित्र भी शामिल है। डलमऊ में पंडित पथवारी दीन उर्फ कुल्ली भाट उनके परम मित्र थे। जब निराला पहली बार ससुराल आये तो डलमऊ स्टेशन से कुल्ली ही उनको लेकर आये थे। बाद में दोनों की मित्रता काफ़ी घनिष्ठ हो गई।कुल्ली कविता भी करते थे और उन्हें इतिहास और साहित्य की काफ़ी जानकारी थी।समाज सुधारक के रूप में वह काफी प्रगतिवादी थे।उन्होंने समाज के पिछड़े वर्ग के लिए एक विद्यालय भी खोला हुआ था। इन्ही कारणों से निराला कुल्ली से बहुत प्रभावित थे कि उन्होंने कुल्ली भाट पर एक पूरी किताब ही लिख डाली थी।किताब में निराला लिखते है कि ‘पंडित पथवारी दीन भट्ट (कुल्ली भाट) मेरे मित्र थे।उनके परिचय के साथ मेरा भी परिचय आया है कदाचित अधिक विस्तार पा गया है’। मित्र की कहानी के बहाने निराला ने समाज की रूढ़ियों के खिलाफ अपनी रचना में आवाज उठाई है।बाद में कुल्ली भाट की मित्रता की छाप उनकी कई रचनाओं में देखने को मिलता है।