इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने उत्तर प्रदेश के 4 प्रमुख राजनीतिक दलों- भाजपा, सपा, बसपा और कांग्रेस को एक नया नोटिस जारी कर जवाब मांगा है कि राज्य में जाति आधारित रैलियों पर हमेशा के लिए पूर्ण प्रतिबंध क्यों नहीं लगा दिया जाना चाहिए और उल्लंघन के मामले में चुनाव आयोग को उनके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं करनी चाहिए. नौ साल पहले पारित किए गए अपने अंतरिम आदेश पर कोई कार्रवाई नहीं होने के बाद हाई कोर्ट ने नए नोटिस जारी किए. इस याचिका को पेश करने वाले शख्स ने कहा था कि राजनीतिक दलों की ऐसी अलोकतांत्रिक गतिविधियों के कारण कम संख्या वाली जातियां अपने ही देश में दोयम दर्जे की नागरिक बन गई हैं.
टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर के मुताबिक मुख्य न्यायाधीश राजेश बिंदल और न्यायमूर्ति जसप्रीत सिंह की पीठ ने हाल ही में वकील मोतीलाल यादव द्वारा दायर एक पुरानी जनहित याचिका पर ये आदेश पारित किया. जिसमें यूपी में जाति-आधारित रैलियों पर प्रतिबंध लगाने की मांग की गई थी. रविवार को अपलोड किए गए अपने आदेश में पीठ ने सुनवाई की अगली तारीख 15 दिसंबर तय करते हुए इस मुद्दे पर जवाब देने के लिए मुख्य चुनाव आयुक्त (chief election commissioner-CEC) को नोटिस भी जारी किया है. इसी जनहित याचिका पर 11 जुलाई 2013 को सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट की एक पीठ ने राज्य में जाति आधारित रैलियों के आयोजन पर अंतरिम रोक लगा दी थी. हालांकि नौ साल बाद भी न तो चारों पार्टियों में से किसी ने और न ही सीईसी के कार्यालय ने हाई कोर्ट द्वारा उन्हें जारी किए गए नोटिसों पर अपनी प्रतिक्रिया पेश की.
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जब ये मामला हाल ही में फिर सुनवाई के लिए आया तो इस पर चिंता जाहिर करते हुए बेंच ने राजनीतिक दलों को नए नोटिस जारी किए और सीईसी को 15 दिसंबर तक अपना जवाब दाखिल करना है. जबकि अपने 2013 के आदेश में हाईकोर्ट की एक पीठ ने कहा था कि जाति-आधारित रैलियों को आयोजित करने की बेरोक आजादी पूरी तरह गलत है और आधुनिक पीढ़ी की समझ से परे है. इसको उचित नहीं ठहराया जा सकता है. बल्कि यह कानून के शासन को नकारने और नागरिकों को मौलिक अधिकारों से वंचित करने का कार्य होगा. पीठ ने यह भी कहा था कि जाति व्यवस्था में राजनीतिक आधार तलाशने की अपनी कोशिश में ऐसा लगता होता है कि राजनीतिक दलों ने सामाजिक ताने-बाने और सामंजस्य को गंभीर रूप से बिगाड़ दिया है.