“असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान” – मतलब “हमें पाकिस्तान चाहिए और हिंदू महिलाएँ भी लेकिन अपने मर्दों के बग़ैर।” ये उन नारों में से एक है जो 90 के दशक में कश्मीर घाटी में गूँज रहा था। ये वो दौर था जब रोज़ घाटी के मस्जिदों से हिंदुओं व अन्य ग़ैर-मुस्लिमों के ख़िलाफ़ मौत का फ़रमान जारी होता था। 16-17 साल के कश्मीरी मुस्लिम बड़े शौक़ से हथियार उठा रहे थे। उनके लिए आतंकवादी बनना बड़े फ़ख्र की बात थी।
आज़ादी और जेहाद के नाम पर हिंदुओं, उनके बच्चों का कत्ल और महिलाओं का रोज़ बलात्कार हो रहा था। उस वक्त जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस और कॉन्ग्रेस के गठबंधन की सरकार थी, लेकिन हुकूमत चल रही थी आतंकवादियों और अलगाववादियों की। मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला और कॉन्ग्रेस की केंद्र सरकार ने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध रखी थी। मीडिया के नाम पर घाटी के लोग पाकिस्तान का PTV देख रहे थे।
14 सितम्बर, 1989 को कश्मीरी पंडितों के सबसे बड़े नेता माने जाने वाले पंडित टीका लाल टपलू को श्रीनगर में सरेआम गोलियों से भून दिया जाता है। उनका दोष सिर्फ इतना था की वो हिंदू थे। हत्या से ठीक 2 दिन पहले उनके घर पर हमला भी किया गया था। ये घाटी के हिंदुओं को ख़त्म करने की शुरुआत थी। इसके बाद मानो हत्याओं का सिलसिला चल पड़ा। लगभग चार महीने बाद 4 जनवरी।, 1990 को श्रीनगर के एक उर्दू अख़बार में हिज़बुल मुजाहिद्दीन का एक बयान छपता है जिसमें हिंदुओं को घाटी छोड़ने के लिए कहा जाता है।
सार्वजनिक तौर पर हिंदुओं के ख़िलाफ़ भड़काऊ भाषणों की भरमार थी। कश्मीर घाटी में हर तरफ़ ख़ौफ़ का माहौल था और हिंदुओं के ख़िलाफ़ तबीयत से ज़हर उगला जा रहा था। 18 जनवरी, 1990 को फारूक अब्दुल्ला के इस्तीफ़ा देते ही रातों-रात हिंदुओं के घरों पर धमकी भरे पोस्टर चिपका दिए गए। हिंदुओं के घरों पर लाल घेरे बनाए गए ताकि उनकी पहचान हो सके। उनके घर की दीवारों पर लिख दिया गया – “कश्मीर छोड़ दो, नहीं तो मार दिए जाओगे।”
पूरी कश्मीर घाटी में हिंदुओं के ख़िलाफ़ भड़काऊ केसेट्स तक बाँटे गए। “रलिव गलिव चलिव” का नारा दिया गया, जिसका मतलब है या तो इस्लाम अपना के हमारे साथ मिल जाओ, या मरो या फिर भाग जाओ। ये कश्मीरी हिंदुओं के लिए सीधी धमकी थी। अगले ही दिन 19 जनवरी, 1990 को कश्मीर के इतिहास का सबसे काला अध्याय लिखा गया। सैकड़ों कश्मीरी मुस्लिम पाकिस्तान ज़िंदाबाद चिल्लाते हुए हाथों में AK-47 ले के सड़कों पर उतर आए।
“कश्मीर में अगर रहना है, अल्लाहू अकबर कहना है” और “यहां क्या चलेगा, निज़ाम-ए-मुस्तफा” जैसे इस्लामी नारों से पूरा कश्मीर गूँज रहा था। दिन-दहाड़े हिंदुओं को उनके घरों में घुस के मारा गया। महिलाओं का बलात्कार किया गया। छोटे मासूम बच्चों तक को नहीं छोड़ा गया। ये नरसंहार सिर्फ कश्मीर तक सीमित नहीं था, श्रीनगर में भी हिंदुओं को उनके घरों में घुस के मारा गया। सिर्फ एक रात में ही 60,000 से ज़्यादा हिंदुओं ने पलायन किया। माना जाता है कि वास्तविक आँकडे इससे कहीं ज़्यादा हैं।
कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के आंकड़ों की माने तो जनवरी 1990 में कश्मीर में हिंदुओं के 75,343 परिवार थे। 1992 तक लगभग 70,000 से ज़्यादा परिवार इस्लामी आतंकवाद की वजह से घाटी से पलायन कर गए। वर्तमान में कश्मीर में लगभग 800 हिंदू परिवार ही बचे हैं। 1941 में कश्मीरी पंडितों की संख्या 10 लाख के आसपास थी जो की कुल आबादी का 15 प्रतिशत था। ये संख्या 1991 में घट कर 9000 यानी सिर्फ 0.1 प्रतिशत रह जाती है।
ये घटनाएँ और आँकडें यह बताने के लिए काफ़ी हैं की कश्मीर में इस्लामिक कट्टरपंथियों ने संगठित तरीक़े से हिंदुओं का नरसंहार किया है। फ़िल्म निर्माता विवेक अग्निहोत्री ने ‘द कश्मीर फ़ाइल्स’ में कहानी नहीं बल्कि कश्मीरी हिंदुओं की उस सच्चाई को दिखाया है जिसको इतिहास ने हमेशा दबा के रखा। ये फ़िल्म नहीं बल्कि कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार और पलायन का जीता जागता दस्तावेज़ है। फ़िल्म में दिखाई गई घटनाएँ सीन दर सीन सच्चाई को बयाँ करती हैं और हमारे सामने कई गम्भीर सवाल खड़े करती हैं।
आख़िर क्या कारण था की उस समय पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद अपने चरम पे था? क्यूँ घाटी में हिंदुओं की दिन-दहाड़े हो रही हत्याओं को जम्मू-कश्मीर और केंद्र की कोंग्रेस सरकारें चुपचाप देखती रहीं? क्यों मस्जिदों से अज़ान की बजाए हिंदुओं को मारने के फ़रमान सुनाई देते थे? आखिर कैसे इतनी आसानी से घाटी के कश्मीरी मुस्लिमों को जिहाद और आज़ादी के नाम पर AK-47 जैसे अत्याधुनिक हथियार मिल रहे थे?
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क्यों फारूक अब्दुल्ला के इस्तीफ़ा देने के अगले दिन ही सैंकड़ों हिंदुओं को मौत के घाट उतार दिया गया? क्यों टीका लाल टपलु और उनके जैसे सैंकड़ों हिंदुओं के क़ातिलों पर मुक़दमे नहीं चलाए गए? क्यों जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ़्रंट जैसे आतंकी संगठन को साफ़ नहीं किया गया? क्यों यासीन मालिक जैसे आतंकियों को सज़ा नहीं दी गई? और आखिर क्यों कभी किसी सरकार ने कश्मीरी हिंदुओं की पुनर्स्थापना के लिए कुछ नहीं किया? इंसाफ़ की इस लड़ाई को लड़ते हुए 32 साल बीत चुके हैं और आज भी लाखों कश्मीरी हिंदू अपने घरों में जाने का इंतज़ार कर रहे हैं और सैंकड़ों इसी इंतज़ार में इस दुनिया को अलविदा कह चुके हैं।