बात 70 के दशक की है, इंदौर के एक प्रतिष्ठित वकील हुआ करते थे नाम था मोहम्मद अहमद खान। उन्होने ने अपनी 43 साल से साथ रहने वाली बीबी को छोडकर एक नयी उम्र की लड़की से शादी कर ली। इसके बाद 5 बच्चों के साथ अपनी पहली बीबी को घर से निकाल दिया। बच्चों के परवरिश के नाम पर कभी-कभार थोड़े बहुत पैसे दे दिया करते थे। 59 साल की महिला जिसने अपना सारा जीवन अहमद खान के साथ गुजारा था, उसने अहमद खान से नियमित रूप से अपने गुजारे भत्ते की मांग कर रही थी। जिससे बौखलाए अहमद खान ने 6 नवम्बर 1978 मे उसे तीन तलाक दे दिया और मेहर की रकम अदा करके, अपनी नियत साफ करते हुये कहा की आगे से वे अब एक पैसा भी नहीं देंगे।
अब शुरू होता है देश का सबसे चर्चित कोर्ट केस, “शाह बनो केस”, मोहम्मद अहमद खान की पहली बीबी का नाम शाह बानो था । तलाक के बाद शाह बानो अपने गुजारे भत्ते के हक के कोर्ट का रुख अख़्तियार किया। मोहम्मद अहमद खान ने अपनी दलील मे कहा कि तीन तलाक के बाद इद्दत की मुद्दत तक ही तलाकशुदा महिला की देखरेख की जिम्मेदारी शौहर की होती है, उसके बाद नहीं। मुस्लिम महिला को तलाक के बाद गुजारा भत्ता नहीं दिया जा सकता है। दरअसल, भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ के मुताबिक, तलाक के बाद आम तौर पर 3 महीने ‘इद्दत की मुद्दत’ कहलाती है। इस अवधि के दौरान महिला की देखरेख की जिम्मेदारी तलाक देने वाले पति की होती है। अगर महिला उस वक्त प्रेग्नेंट हो तो इद्दत की मुद्दत बच्चे के जन्म तक मानी जाती है। मजिस्ट्रेट कोर्ट ने अहमद खान की इन सारी दलीलों को खारिज करते हुये फैसला शाह बानो के पक्ष मे किया । फिर हाईकोर्ट ने भी अपना फैसला शाह बनो के पक्ष ही सुनाया |
अहमद खान ने हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट मे चुनौती दी और दलील दी कि दंड प्रक्रिया संहिता की जिस धारा 125 के तहत गुजारे-भत्ते की मांग की गई है वह मुस्लिमों पर लागू ही नहीं होती क्योंकि यह मुस्लिम पर्सनल लॉ से जुड़ा मामला है। यह मामला 5 जजों की संविधान पीठ में पहुंच गया। अंततः, 23 अप्रैल 1985 को तत्कालीन सीजेआई वाईवी चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली कॉन्स्टिट्यूशनल बेंच ने अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए मोहम्मद अहमद खान को आदेश दिया कि वह शाह बानो को हर महीने भरण-पोषण के लिए 179.20 रुपये दिया करेंगे। ये जीत शाहबानों की ही नहीं उन तमाम मुस्लिम महिलाओं की भी थी जो इस पीड़ा से गुजर रही थीं। साथ ही साथ सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा कि तलाक के बाद बीवी को मेहर देने का मतलब यह नहीं कि उसे गुजारा-भत्ता देने की जरूरत नहीं है। गुजारा-भत्ता तलाकशुदा पत्नी का हक है। अपने फैसले मे शीर्ष अदालत ने सरकार से भी ‘समान नागरिक संहिता’ की दिशा में आगे बढ़ने की अपील की। संविधान के अनुच्छेद 44 में भी कहा गया है कि राज्य भविष्य में समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने की कोशिश करेगा।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को कांग्रेस के तत्कालीन गृहराज्य मंत्री मोहम्मद आरिफ खान ने खूब सराहा और इसे एक ऐतिहासिक फैसला कहा, वहीं राजीव गांधी भी इस फैसले के समर्थन मे थे । किन्तु मुस्लिम पर्सनल लॉं बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को उनके मज़हब मे दखल देना बताया और उन्होने इसके खिलाफ जगह-जगह जुलूस और धरने शुरू कर दिये। यह बड़ी विडंबना ही थी कि लेफ्ट दलों को छोड़कर सेकुलर कहे जाने वाली सभी पार्टियों ने सुप्रीम कोर्ट के इस सेकुलर फैसले का विरोध किया। मुस्लिम कट्टरपंथियों के लगातार हो रहे विरोध के सामने राजीव गांधी झुक गए और साल भर मे ही सुप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले को पलटते हुए सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक में संरक्षण का अधिकार) कानून 1986 पारित कर दिया। शाह बानो जीत के भी हार गईं, तुष्टिकरण की राजनीति उन्हे हरा दिया। सरकार के इस फैसले से आहत मोहम्मद आरिफ ने अपने पद और कांग्रेस की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। राजीव गांधी सरकार के इस फैसले ने कांग्रेस को पक्षपाती और मुस्लिम तुष्टीकरण करने वाली पार्टी का जामा पहना दिया जो अब तक उतरने का नाम नहीं ले रहा है।