कोई भारत को चाहे जैसा नचा ले, झुका ले, यह हो नहीं सकता: मोहन भागवत

नागपुर। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने संघ के स्थापना दिवस विजयादशमी पर्व पर रविवार को नागपुर से राष्ट्र को संबोधित किया। उन्होंने इस अवसर पर कहा कि हम सभी से मित्रता चाहते हैं। वह हमारा स्वभाव है। परन्तु हमारी सद्भावना को दुर्बलता मानकर अपने बल के प्रदर्शन से कोई भारत को चाहे जैसा नचा ले, झुका ले, यह हो नहीं सकता। इतना तो अब तक ऐसा दुःसाहस करने वालों को समझ में आ जाना चाहिए।

हमारी सेना की अटूट देशभक्ति व अदम्य वीरता, हमारे शासनकर्ताओं का स्वाभिमानी रवैया तथा हम सब भारत के लोगों के दुर्दम्य नीति-धैर्य का जो परिचय चीन को पहली बार मिला है, उससे उसके भी ध्यान में यह बात आनी चाहिए। उसके रवैये में सुधार होना चाहिए। परन्तु नहीं हुआ तो जो परिस्थिति आएगी, उसमें हम लोगों की सजगता, तैयारी व दृढ़ता कम नहीं पड़ेगी, यह विश्वास आज राष्ट्र में सर्वत्र दिखता है। उन्होंने कहा कि कोरोना महामारी के संदर्भ में चीन की भूमिका संदिग्ध रही यह तो कहा ही जा सकता है, परंतु भारत की सीमाओं पर जिस प्रकार से अतिक्रमण का प्रयास अपने आर्थिक सामरिक बल के कारण मदांध होकर उसने किया वह तो सम्पूर्ण विश्व के सामने स्पष्ट है। भारत का शासन, प्रशासन, सेना तथा जनता सभी ने इस आक्रमण के सामने अड़ कर खड़े होकर अपने स्वाभिमान, दृढ़ निश्चय व वीरता का उज्ज्वल परिचय दिया। इससे चीन को अनपेक्षित धक्का मिला लगता है। इस परिस्थिति में हमें सजग होकर दृढ़ रहना पड़ेगा।

मोहन भागवत बोले इतना तो अब तक ऐसा दुःसाहस करने वालों को समझ में आ जाना चाहिए

डॉ. मोहन भागवत ने कहा कि चीन ने अपनी विस्तारवादी मनोवृत्ति का परिचय इसके पहले भी विश्व को समय-समय पर दिया है। आर्थिक क्षेत्र में, सामरिक क्षेत्र में, अपनी अंतर्गत सुरक्षा तथा सीमा सुरक्षा व्यवस्थाओं में, पड़ोसी देशों के साथ तथा अंतरराष्ट्रीय संबंधों में चीन से अधिक बड़ा स्थान प्राप्त करना ही उसकी राक्षसी महत्त्वाकांक्षा के नियंत्रण का एकमात्र उपाय है। इस ओर हमारे शासकों की नीति के कदम बढ़ रहे हैं ऐसा दिखाई देता है। श्रीलंका, बांग्लादेश, ब्रह्मदेश, नेपाल ऐसे हमारे पड़ोसी देश, जो हमारे मित्र भी हैं और बहुत मात्रा में समान प्रकृति के देश हैं, उनके साथ हमें अपने सम्बन्धों को अधिक मित्रतापूर्ण बनाने में अपनी गति तीव्र करनी चाहिए। इस कार्य में बाधा उत्पन्न करने वाले मनमुटाव, मतान्तर, विवाद के मुद्दे आदि को शीघ्रतापूर्वक दूर करने का अधिक प्रयास करना पड़ेगा।

मोहन भागवत


डॉ. मोहन भागवत ने कहा कि राष्ट्र की सुरक्षा व सार्वभौम सम्प्रभुता को मिलने वाली बाहर की चुनौतियां ही ऐसी सजगता तथा तैयारी की मांग कर रही हैं ऐसा नहीं, देश में पिछले वर्ष भर में कई बातें समानांतर चलती रहीं। उनके निहितार्थ को समझते हैं तो इस नाजुक परिस्थिति में समाज की सावधानी, समझदारी, समरसता व शासन-प्रशासन की तत्परता का महत्त्व सब के ध्यान में आता है। सत्ता से जो वंचित रहे हैं, ऐसे सत्ता चाहने वाले राजनीतिक दलों के पुनः सत्ता प्राप्ति के प्रयास, यह प्रजातंत्र में चलने वाली एक सामान्य बात है। लेकिन उस प्रक्रिया में भी एक विवेक का पालन अपेक्षित है कि वह राजनीति में चलने वाली आपस की स्पर्धा है। शत्रुओं में चलने वाला युद्ध नहीं। स्पर्धा चले, स्वस्थ चले, परंतु उसके कारण समाज में कटुता, भेद, दूरियों का बढ़ना, आपस में शत्रुता खड़ी होना यह नहीं होना चाहिए। ध्यान रहे, इस स्पर्धा का लाभ लेने वाली, भारत को दुर्बल या खण्डित बनाकर रखना चाहने वाली, आपस में झगड़ा लगाने वाली शक्तियां, विश्व में हैं व उनके हस्तक भारत में भी हैं। उनको अवसर देने वाली कोई बात अपनी ओर से ना हो। यह चिंता सभी को करनी पड़ेगी।

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स्वत्व है वही हिन्दुत्व है

‘हिन्दू’ इस शब्द का उच्चारण संघ के लगभग प्रत्येक वक्तव्य में होते रहता है। फिर भी यहां पर फिर एक बार उसकी चर्चा इसलिए की जा रही है कि इससे सम्बन्धित और कुछ शब्द आजकल प्रचलित हो रहे हैं। उदाहरणार्थ स्वदेशी इस शब्द का आजकल बार-बार उच्चारण होता है। इसमें जो स्वत्व है वही हिन्दुत्व है। हमारे राष्ट्र के सनातन स्वभाव का उद्घोष स्वामी विवेकानंद जी ने, अमेरिका की भूमि से एक कुटुम्ब के रूप में सम्पूर्ण विश्व को देखते हुए, सर्वपंथसमन्वय के साथ स्वीकार्यता व सहिष्णुता की घोषणा के रूप में किया था। महाकवि रविंद्रनाथ ठाकुर ने अपने स्वदेशी समाज में भारत के नवोत्थान की कल्पना इसी आधार पर स्पष्ट रूप से रखी थी। श्री अरविंद ने उसी की घोषणा अपने उत्तरपारा के भाषण में की थी। अट्ठारह सौ सत्तावन के पश्चात् हमारे देश के समस्त आत्ममंथन, चिन्तन तथा समाज जीवन के विविध अंगों में प्रत्यक्ष सक्रियता का सम्पूर्ण अनुभव हमारे संविधान की प्रस्तावना में गठित किया गया है। वह इसी हमारी आत्मा की घोषणा करता है। उस हमारी आत्मा या स्व के आधार पर, हमारे देश के बौद्धिक विचार मंथन की दिशा, उसके द्वारा किए जाने वाले सारासार विवेक, कर्तव्याकर्तव्यविवेक के निष्कर्ष निश्चित होने चाहिए। हमारे राष्ट्रीय मानस की आकांक्षाएं, अपेक्षाएं व दिशाएं उसी के प्रकाश में साकार होनी चाहिए। हमारे पुरुषार्थ के भौतिक जगत में किए जाने वाले उद्यम के गंतव्य व प्रत्यक्ष परिणाम उसी के अनुरूप होने चाहिए। तब और तब ही भारत को स्वनिर्भर कहा जाएगा। उन्होंने अपने उद्बोधन का अंत इन शब्दों के साथ किया। वे बोले “प्रश्न बहुत से उत्तर एक, कदम मिलाकर बढ़ें अनेक। वैभव के उत्तुंग शिखर पर, सभी दिशा से चढ़ें अनेक।।” ।। भारत माता की जय।।

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