मानव जीवन के इतिहास में श्रद्धा और विश्वास दो ऐसे आधार स्तंभ है जिनके जरिए ही मानव का इतिहास, उसकी भाषा संस्कृति, जीवन जीने की पद्धति को पढ़ा और जाना जाता है । हमारी सनातन संस्कृति, पद्धति में पित्त पक्ष या श्राद्ध पक्ष का बहुत महत्व है। इसमें हम अपनों जिन्हें हम खो चुके हैं, जो हमसे कहीं दूर अनंत आकाश की ऊंचाइयों में विलीन हो चुके हैं या जिन्हें हम चाहते, मानते या जानते थे, वह भले ही हमारे सगे-संबंधी न रहे हो उनके प्रति भी कृतज्ञता एवं श्रद्धा जताने का अवसर है। वह चाहे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के रूप में रहे हो, सुभाष चंद्र बोस, शहीद भगत सिंह के रूप में रहे हो अथवा महर्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद इन सभी महान विभूतियों को याद करने का और उनके दिए संस्कारों को जीने की पद्धति का नाम ही श्रद्धा अथवा श्राद्ध पक्ष है।
श्राद्ध पक्ष में हम महान विभूतियों को, अपने दिवंगत पारिवारिकजनों को सिर्फ याद नहीं करते हम उनके संस्कार, उनके दिए शिक्षा को ग्रहण करने, आत्मसात करने और अपने जीवन को ऊपर उठाने का प्रयत्न करते हैं। तो इस प्रण ले कि अपने पितरों, अपने स्वजनों और महान विभूतियों को श्रद्धा दें, उनके सिखाए जीवन पद्धति पर चलने का प्रयत्न करें निश्चित तौर पर वह हमारा कल्याण करेंगे। क्योंकि 100 वर्ष पश्चात इस बार पितृपक्ष का प्रारंभ चंद्र ग्रहण से तथा समापन सूर्य ग्रहण से होगा।
आज की तेजी से बदलती दुनिया में भारतीय संस्कृति हमें हमारी जड़ों और मूल्यों से जोड़े रखती है। यह हमें आत्मिक दृढ़ता, धैर्य और नैतिकता का मार्ग दिखाती है। व्यवसायिक और व्यक्तिगत जीवन में भी इसके सिद्धांत सशक्त नेतृत्व, सामूहिक सहयोग और सामाजिक उत्तरदायित्व की नींव रखते हैं। भारतीय संस्कृति न केवल इतिहास का प्रतीक है, बल्कि आज और आने वाली पीढ़ियों के लिए जीवन जीने की दिशा और प्रेरणा का स्रोत भी है।
यदि परिवार को केवल जन्म से जुड़ी पहचान मान लिया जाए, तो वह मात्र जैविक बंधन रह जाएगा किन्तु परिवार का गहन अर्थ है, एक ऐसी संस्था जो पीढ़ी दर पीढ़ी मूल्यों का संचार करती है। हमारे शास्त्रों में परिवार को “कुटुम्बं कुटुम्बकम्” की संज्ञा दी गई है, जिसका आशय है कि परिवार वह स्थान है जहाँ प्रेम, त्याग, सहयोग और कर्तव्य एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं।
बच्चा जब जन्म लेता है तो उसका पहला परिचय माता-पिता और परिवार से होता है। वही परिवार उसे बोलना, चलना, सोचना और आचरण करना सिखाता है। “मातृदेवो भव, पितृदेवो भव” के आदर्श से युक्त भारतीय संस्कृति में माता-पिता को प्रथम गुरु माना गया है। परिवार ही वह स्थान है जहाँ सम्मान, संयम, कृतज्ञता और सेवा जैसे संस्कार सहज रूप से आत्मसात होते हैं।
परिवार केवल वर्तमान पीढ़ी का संगठन नहीं है, बल्कि यह अतीत और भविष्य के बीच सेतु है। हमारे पूर्वजों ने जिन आदर्शों और जीवन मूल्यों को जिया, परिवार उन्हें अगली पीढ़ियों तक पहुँचाने का कार्य करता है। यही कारण है कि भारतीय परिवारों में परंपराएँ, त्यौहार, उत्सव और धार्मिक अनुष्ठान केवल रीति-रिवाज नहीं, बल्कि संस्कारों की विरासत हैं। दीपावली पर दीप जलाना, पितृपक्ष में तर्पण करना, नवरात्रि का उपवास, ये सब परिवार की सामूहिक साधनायें हैं, जो हमें अपनी जड़ों से जोड़ती हैं।
आज के दौर में जहाँ व्यक्तिवाद और तकनीकी विकास ने इंसान को अकेलापन दिया है, वहीं परिवार भावनात्मक सहारा बनता है। कठिन परिस्थितियों में परिवार ही वह स्थान है जहाँ हमें बिना शर्त प्रेम और सहयोग मिलता है। यह केवल आर्थिक या सामाजिक सुरक्षा नहीं, बल्कि आत्मिक सुरक्षा का भी आधार है।
आज की युवा पीढ़ी आधुनिकता की दौड़ में परिवार की महत्ता को भूलने लगी है। किंतु यदि परिवार टूटेगा, तो संस्कारों की वह धारा रुक जाएगी जो समाज को एकजुट रखती है इसलिए युवाओं का कर्तव्य है कि वे परिवार की परंपराओं का सम्मान करें, बड़ों का आदर करें और बच्चों को संस्कार दें।
भारतीय सनातन संस्कृति में पितृपक्ष एक धार्मिक अनुष्ठान के साथ जीवन-दर्शन है। यह वह दिव्य समय है जब हम अपनी जड़ों से जुड़ते हैं, उन पूर्वजों को स्मरण करते हैं जिन्होंने हमें जीवन, संस्कार, परंपरा और मूल्य दिए। यह पर्व हमें अपने वर्तमान और भविष्य का नहीं, बल्कि अतीत का भी सम्मान करने का संदेश देता है क्योंकि उसी पर हमारी नींव खड़ी है।
ऋणानुबन्धरूपेण पश्यन्ति पितरः सुतान्” अर्थात् संतानें अपने पितरों का ऋण चुकाने के लिए जन्म लेती हैं। वेदों और पुराणों में स्पष्ट उल्लेख है कि पितृपक्ष के इन 16 दिनों में श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान से पितर संतुष्ट होते हैं और संतानों को आशीर्वाद देते हैं। महाभारत और गरुड़ पुराण में भी श्राद्ध की महिमा विस्तार से वर्णित है। यह हमारे ऋण-त्रय (देवऋण, ऋषिऋण और पितृऋण) की स्मृति और उनकी पूर्ति का माध्यम है।
पितरों के स्मरण का पर्व पितृपक्ष हमें संदेश देता है कि हम अकेले नहीं हैं, बल्कि एक वंश, परंपरा और विचारधारा की निरंतर धारा का हिस्सा हैं। जब हम पितरों का तर्पण करते हैं तो वास्तव में कृतज्ञता का संस्कार अपने भीतर जागृत करते हैं। यही कृतज्ञता हमें दूसरों का सम्मान करना, बड़ों की सेवा करना और समाज के प्रति उत्तरदायी बनना सिखाती है।
आज की युवा पीढ़ी तेजी से बदलती तकनीक और आधुनिकता के बीच अपनी जड़ों से दूर होती जा रही है। पितृपक्ष उन्हें याद दिलाता है कि उनके अस्तित्व के पीछे अनगिनत त्याग, तपस्या और बलिदान छिपे हैं। यदि हम पितरों को भूल जाएँ, तो यह ऐसा होगा जैसे वृक्ष अपनी जड़ों को भूल जाए।
पितृपक्ष यह भी संदेेश देता है कि मृत्यु अंत नहीं, बल्कि यात्रा का एक पड़ाव है। आत्मा, अमर है और पूर्वजों का आशीर्वाद हर पीढ़ी के जीवन में प्रवाहित होता रहता है। इस भाव को आत्मसात करना युवाओं को आध्यात्मिक दृढ़ता देता है, जिससे वे जीवन की चुनौतियों का सामना धैर्य और संतुलन के साथ कर सकते हैं।
हमारी संस्कृति में पितरों को देवताओं से भी पहले स्मरण किया जाता है। “मातृदेवो भव, पितृदेवो भव” का उद्घोष यह बताता है कि माता-पिता और पूर्वज ही हमारे प्रथम देवता हैं। पितृपक्ष का यह भाव हमें विनम्रता, सेवा और कृतज्ञता का मार्ग दिखाता है। यह हमें संदेश देता है कि परिवार केवल रक्त संबंधों का नाम नहीं, बल्कि संस्कारों और मूल्यों की निरंतरता है।
पितृपक्ष एक ऐसा पर्व है जो अतीत, वर्तमान और भविष्य को जोड़ता है। यह हमें हमारे पितरों की स्मृति का स्मरण करने और उनके आशीर्वाद से आगे बढ़ने का अवसर देता है। यह पर्व केवल तर्पण और पिंडदान का समय नहीं, बल्कि जीवन के गहरे सत्य को समझने की साधना भी है। पितृपक्ष हमें यह संदेश देता है कि जीवन का सच्चा अर्थ केवल आगे बढ़ना नहीं, बल्कि अपनी जड़ों का स्मरण करना, उन्हें पोषित करते हुए, नई ऊँचाइयों की ओर बढ़ना है। यही सनातन संस्कृति की शाश्वत धारा है।
हमें एक बात याद रखना होगा कि भारतीय संस्कृति में परिवार को समाज की सबसे छोटी, किन्तु सबसे सशक्त इकाई माना गया है। परिवार केवल रक्त-संबंधों की परिधि तक सीमित नहीं है, बल्कि यह संस्कारों, परंपराओं और मूल्यों की निरंतरता का प्रतीक है। यही कारण है कि भारतीय समाज में परिवार को संस्कृति का आधार और चरित्र निर्माण की पाठशाला कहा गया है।
परिवार, तो संस्कारों की निरंतर प्रवाहित होने वाली गंगा है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहित होती रहती है। यही धारा हमारे जीवन को स्थिरता, प्रेम, कर्तव्य और आध्यात्मिक गहराई प्रदान करती है। जिस समाज में परिवार सशक्त है, वहाँ संस्कृति जीवित रहती है और वह राष्ट्र सदा समृद्ध होता है। परिवार ही वह नींव है, जिस पर संपूर्ण मानवता का भवन खड़ा है। रक्त-संबंध समय के साथ बदल सकते हैं, पर संस्कार और मूल्य ही परिवार की शाश्वत पहचान हैं और पितृपक्ष जैसे अवसर उसे शाश्वतता प्रदान करते हैं।
लेखक
स्वामी चिदानन्द सरस्वती
परमाध्यक्ष, परमार्थ निकेतन, ऋषिकेश।