नेपाल की सर्वोच्च अदालत ने नेपाल की प्रतिनिधि सभा यानी नेपाल की संसद को भंग किये जाने के फैसले को पलट दिया है। अदालत ने सरकार को 13 दिनों के भीतर सदन की बैठक बुलाने का निर्देश दिया है।
नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने पिछले साल 20 दिसंबर को संसद भंग करने की सिफारिश की थी जिसे राष्ट्रपति ने मंजूर कर लिया। संसद भंग किये जाने के इसी फैसले को चुनौती देने वाली 13 याचिकाओं पर नेपाल की सर्वोच्च अदालत ने एतिहासिक फैसला दिया है। सवाल यही है कि प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली अब क्या करेंगे?
सत्ताधारी पार्टी के भीतर भारी अंतर्विरोध के बीच नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने नाटकीय राजनीतिक घटनाक्रम में संसद भंग किये जाने की सिफारिश की थी। 20 दिसंबर को संसद भंग किये जाने के बाद इस साल 30 अप्रैल और 10 मई को नये चुनावों की तारीख भी घोषित कर दी गयी थी।
फैसले पर सवाल
नेपाल की संसद भंग किये जाने के फैसले पर काफी सवाल उठे थे। इस फैसले के खिलाफ नेपाल की तमाम विपक्षी पार्टियां लगातार विरोध दर्ज कराती रही। नेपाल के संविधान में संसद भंग किये जाने को लेकर स्थिति बहुत स्पष्ट नहीं है। विरोधी दलों के साथ-साथ संविधान विशेषज्ञों की राय थी कि प्रधानमंत्री के पास संसद भंग करने का अधिकार नहीं है। इसी तर्क के आधार पर सर्वोच्च अदालत में याचिका दायर कर नेपाली संसद के निचले सदन को बहाल करने की मांग की गयी थी।
अब ओली क्या करेंगे
नेपाल की सर्वोच्च अदालत का ताजा फैसला प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के लिए झटके की तरह है। इसके बाद ओली के सामने विकल्प बहुत कम रह गए हैं। उनके सामने बहुमत साबित करने की चुनौती है। बहुमत उनके साथ नहीं दिख रहा है, ऐसे में उन्हें इस्तीफा देना होगा। सबकी नज़र इसी बात पर टिकी हैं कि ओली आखिरकार ख़ुद कुर्सी छोड़ते हैं या अविश्वास प्रस्ताव का सामना करते हैं?
नेपाली कांग्रेस का किरदार
ओली बनाम प्रचंड की तरह सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी दो खेमों में बंट गयी है। पार्टी के सांसदों की निष्ठा भी बंटी हुई है। मौजूदा स्थिति में ओली के लिए बहुमत साबित कर पाना निःसंदेह बहुत मुश्किल है। ऐसे में नेपाली कांग्रेस का किरदार काफी अहम हो गया है। क्या ओली सत्ता बचाने के लिए नेपाली कांग्रेस की मदद लेंगे? लेकिन इसमें पेंच यह है कि संसद भंग करने के फैसले का नेपाली कांग्रेस ने भी विरोध किया था और न्यायालय के ताजा फैसले का नेपाली कांग्रेस ने भी स्वागत किया है। दूसरे, नेपाली कांग्रेस को साथ लेने का विकल्प पुष्प कमल दहल प्रचंड खेमे के साथ भी है।
कयास यह भी लगाया जा रहा है कि ओली और प्रचंड खेमा किसी तीसरे को नेता बनाए जाने के फैसले पर फिर से एकजुट हो सकते हैं। हालांकि इसकी संभावना बहुत कम है।
ओली-प्रचंड के बीच गहरी खाई
केपी शर्मा ओली की पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (सीपीएन)- नेपाल युनाइटेड मार्क्सवादी लेनिनवादी (यूएमएल) और पुष्प कमल दहल प्रचंड की पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने नवंबर 2017 का आम चुनाव साथ मिलकर लड़ा था। फरवरी 2018 में केपी शर्मा ओली प्रधानमंत्री बने और सत्ता में आने के कुछेक माह बाद इन तमाम पार्टियों का आपस में विलय हुआ जो बाद में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में सामने आयी। हालांकि इस विलय के समय अहम समझौता भी हुआ था जिसमें ढाई साल ओली के प्रधानमंत्री बनने और ढाई साल प्रचंड के प्रधानमंत्री बनने की बात थी।
राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की होड़ में दोनों दलों से ज्यादा दोनों नेताओं के बीच यह एकता कायम नहीं रह पायी। दोनों के बीच दूरियां बढ़ीं। यह दूरी तब और ज्यादा हो गयी जब शर्तों के मुताबिक ढाई साल बाद केपी शर्मा ओली कुर्सी छोड़ने के लिए राजी नहीं हुए। इसके बाद से कई ऐसे मौके आए जब दोनों के रिश्तों की खाई और भी चौड़ी होती गयी। यहां तक की प्रचंड गुट ने ओली को नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी से निकालने की भी घोषणा कर दी।
यह भी पढ़ें: ओली सरकार पर गिरी सर्वोच्च न्यायालय की गाज, संसद भंग करना पड़ा भारी
पार्टी के भीतर अपने खिलाफ उठती आवाज़ को भांपते हुए ही केपी शर्मा ओली ने संसद भंग की सिफारिश की थी। लेकिन अदालत के ताजा फैसले के बाद उन्हें अब या तो खुद ही कुर्सी छोड़नी होगी या फिर अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ेगा।