अमित त्यागी (संपादकीय सलाहकार, सरकारी मंथन)
( लेखक विधि विशेषज्ञ, स्तंभकार एवं जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र के सदस्य हैं)
लखनऊ। भारत की जम्मू, कश्मीर और लद्दाख नीति के संदर्भ में भारतीय संसद द्वारा 22 फरवरी 1994 को पारित प्रस्ताव बेहद महत्वपूर्ण एवं आवश्यक दस्तावेज़ है। उस समय की कांग्रेस सरकार के प्रधानमंत्री नरसिंह राव के नेतृत्व में भारतीय संसद ने ध्वनिमत से प्रस्ताव पारित कर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) पर अपना हक जताते हुए कहा था कि यह भारत का अटूट अंग है। पाकिस्तान को वह हिस्सा छोड़ना होगा, जिस पर उसने कब्जा जमा रखा है।
भारतीय संसद द्वारा पारित इस प्रस्ताव का मूल था कि “यह सदन पाकिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर में चल रहे आतंकियों के शिविरों पर गंभीर चिंता जताता है। सदन का मानना है कि पाकिस्तान की तरफ से आतंकियों को हथियारों और धन की आपूर्ति के साथ-साथ आतंकियों को भारत में घुसपैठ करने में मदद दी जा रही है। सदन भारत की जनता की ओर से घोषणा करता है कि पाक अधिकृत कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा।
भारत अपने इस भाग के विलय का हरसंभव प्रयास करेगा। भारत में इस बात की पर्याप्त क्षमता और संकल्प है कि वह उन नापाक इरादों का मुंहतोड़ जवाब दे, जो देश की एकता, प्रभुसत्ता और क्षेत्रीय अखंडता के खिलाफ हो और मांग करता है कि पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर के उन इलाकों को खाली करे, जिसे उसने कब्जाया हुआ है। भारत के आंतरिक मामलों में किसी भी हस्तक्षेप का कठोर जवाब दिया जाएगा”।
जब तक 370, 35ए नहीं हटी थी तब तक 22 फरवरी को पारित प्रस्ताव भी सिर्फ एक प्रस्ताव दिखाई देता था। इस पर अमल होना एक दुस्वप्न नज़र आता था। किन्तु जब से 370 का खात्मा हुआ है तब से नरसिंह राव द्वारा पारित यह प्रस्ताव भी अपनी पूर्णता की आस दिखाने लगा है। इस प्रस्ताव के विरोध में कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि 1972 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के वजीरे आजम जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच शिमला समझौते के बाद संसद में पारित प्रस्ताव का कोई मतलब नहीं है।
इस समझौते के अंतर्गत नियंत्रण रेखा को दोनों देशों के बीच सरहद के रूप में स्वीकार किया गया था। विशेषज्ञों का यह तर्क इतिहास के पन्ने उलटने के बाद कहीं नहीं ठहरता है। क्योंकि, जिसे हम पाक अधिकृत कश्मीर और पाकिस्तान आजाद कश्मीर कहता है, वह जम्मू का हिस्सा था न कि कश्मीर का। इसलिए उसे कश्मीर कहना ही गलत है। वहां की भाषा कश्मीरी न होकर डोगरी और मीरपुरी का मिश्रण है। विभाजन के बाद कश्मीर के महाराजा हरी सिंह भारत में अपने राज्य के विलय के प्रस्ताव को मान गए थे। विलय के उपरांत भारत को तत्कालीन कश्मीर राज्य के वर्तमान भाग पर अधिकार मिला।
महाराजा हरी सिंह से हुई संधि के परिणामस्वरूप पूरे कश्मीर पर भारत का अधिकार है। इस कारण 22 फरवरी को संसद द्वारा पारित प्रस्ताव संवैधानिक रूप से भी सही है और अन्तराष्ट्रिय कानूनी मानकों के हिसाब से भी।
अखंड भारत का सपना पूरा करने के क्रम में कश्मीर भूभाग में अनु0-370 एवं 35-ए का समाधान आवश्यक था। ये दोनों प्रावधान कश्मीर को जो अलग राज्य का दर्जा प्रदान करते थे और उसके द्वारा वहाँ की स्थानीय सरकारें अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिये प्रदेश से धोखा करती रही थीं। कश्मीरी लोगों के पिछड़ेपन एवं कश्मीर में प्रशासनिक भ्रष्टाचार के लिये भी यही धाराएँ काफी हद तक जिम्मेदार रहीं थीं। इसके कारण देश की बड़ी जांच संस्थाएं जम्मू-कश्मीर में भ्रष्टाचार की जांच को स्वतंत्र नहीं थीं।
एक ओर जहां देश के अन्य राज्यों में विधानसभा का कार्यकाल पांच साल होता है वहीं जम्मू कश्मीर विधानसभा का कार्यकाल छह साल होता था। अब जम्मू कश्मीर से जुड़े कुछ एतेहासिक तथ्यों को समझते हैं। 26 अक्टूबर 1947 में कश्मीर राज्य के भारत में वैध विलय के बाद भी कश्मीर के मुस्लिम नेता इस बात पर पसोपेश में थे कि वह भारत के साथ रहें या पाकिस्तान के साथ जाएं। ऐसे वक्त में जवाहर लाल नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को दिल्ली बुलाया। बातचीत के बाद सन 1952 में दिल्ली में एक समझौता होता है। इस समझौते के अनुसार जम्मू कश्मीर की रियासत और भारत की केंद्र सरकार के बीच के रिश्ते तय किये जाते हैं।
इस समझौते के द्वारा 35-ए उनको मिल गया। 1950 में लागू हुये भारतीय संविधान के अनु0-370 के तहत कश्मीर को विशेषाधिकार पहले ही दिये जा चुके थे। हालांकि, बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर 370 के पक्षधर नहीं थे।
महाराजा हरी सिंह ने किए विलय पर हस्ताक्षर
भारत उस समय पांच सौ से ज़्यादा रियासतों में बटा था। तत्कालीन वाइसराय माउण्टबेटन ने रियासतों को भारत या पाकिस्तान में विलय का विकल्प दिया था। सामरिक और भौगोलिक रूप से महत्वपूर्ण जम्मू एवं कश्मीर भूभाग चीन और सोवियत संघ की सीमाओं से सटा हुआ था। पहाड़ी इलाका होने के कारण हिमालय के इस भूभाग का किसी भी देश की सुरक्षा के लिए विशेष महत्व था। कश्मीर के महाराजा हरीसिंह नें इस विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। चूंकि, कश्मीर एक मुस्लिम बाहुल्य इलाका था इसलिए माउण्टबेटन एवं उनके अन्य अंग्रेज़ साथियों को इस बात का कतई अंदेशा नहीं था कि कश्मीर का विलय भारत में भी हो सकता है। उनके आंकलन के अनुसार कश्मीर के राजा हरिसिंह पाकिस्तान के साथ जाने वाले थे। विलय की प्रक्रिया के दौरान हरिसिंह ने निर्णय लेने में काफी समय लगा दिया। इस बीच 15 अगस्त 1947 की तारीख पास आ गयी। उस समय के प्रमुख मुस्लिम नेता शेख अब्दुल्ला प्रारम्भ में भारत के साथ विलय के पक्षधर रहे किन्तु जैसे जैसे समय बीतता चला गया और हरिसिंह फैसला लेने में देर करते रहे। इस बीच शेख अब्दुल्ला का मन बदलने लगा। वह एक स्वतंत्र राज्य की मांग करने लगे।
माउंटबेटन के पेंच से उलझा कश्मीर का विलय
कुछ कबायली लड़ाकों ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। पाकिस्तान की तत्कालीन सरकार और सेना ने नाज़ुक मौके का फायदा उठाकर कबालियों का समर्थन करके उनको उकसा दिया। उनको हथियार एवं अन्य जरूरी सामान मुहैया करा दिये। पाकिस्तानी फौज से नेपथ्य से समर्थन पाकर ये लड़ाके गैर मुस्लिमों की हत्या, लूटपाट एवं महिलाओं के साथ बलात्कार करने लगे। हालात इतने ज़्यादा बदतर हो गए कि स्वयं राजा हरि सिंह ने श्रीनगर से पलायन कर दिया। 25 अक्तूबर 1947 के दिन जम्मू आकर सुरक्षित जगह पर उन्होने शरण ली। जम्मू आकर हताश हरिसिंह का कहना था कि “हम कश्मीर हार गए”। 27 अक्तूबर 1947 को पहली बार भारतीय सेना ने कश्मीर की तरफ कूच किया। स्वतंत्र राज्य चाहने वाले हरिसिंह की अक्ल तब ठिकाने आ गयी जब पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया। उनको भारत के साथ रहना लाभकारी लगा। पर वाइसराय माउंटबेटन ने इसमे एक पेंच लगा दिया। उन्होने कश्मीर के महाराजा हरि सिंह की विलय की बात तो स्वीकार कर ली किन्तु यह तय कर दिया कि जैसे ही कश्मीर की क़ानून व्यवस्था ठीक हो जायेगी। हमलावरों को खदेड़ दिया जाएगा। वैसे ही भारत में राज्य के विलय का मुद्दा जनता के हवाले से निपटाया जाएगा। इसके बाद रही सही कसर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने पूरी कर दी। अपनी अन्तराष्ट्रिय छवि चमकाने के लिए नेहरू ने कश्मीर में संयुक्त राष्ट्र या अंतरराष्ट्रीय तत्वावधान में जनमत संग्रह कराने की बात कह दी। एक अनावश्यक कदम के द्वारा उस समय ही सुलझने जा रहा कश्मीर मुद्दा लंबे अरसे के लिए गले की फांस बना दिया गया।