उत्तर प्रदेश चुनाव में इस बार बीजेपी और मुख्य विपक्षी समाजवादी पार्टी दोनों की ओर से जातियों को गोलबंद करने के लिए जबर्दस्त सोशल इंजीनियरिंग की गई थी। इसका फायदा दोनों दलों को मिला है, लेकिन असल बाजी मारी है जाति-आधारित उनकी सहयोगी पार्टियों ने। लेकिन, अगर आप दोनों खेमों में सहयोगी दलों के चुनावी प्रदर्शन की तुलना करेंगे तो बीजेपी के सहयोगियों ने विपक्ष के मुकाबले काफी बेहतर प्रदर्शन किया है और अखिलेश यादव के पार्टनर उनके सामने चित हो गए हैं। बीजेपी के दोनों सहयोगी दलों की स्थिति पहले के मुकाबले काफी मजबूत हुई है।
भाजपा के सहयोगियों ने सपा पार्टनरों के मुकाबले अच्छा प्रदर्शन किया यूपी में पिछले तीन चुनावों में बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग से प्रेरित होकर इसबार सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने भी गैर-यादव ओबीसी वोटों को साइकिल के साथ जुगलबंदी कराने की भरपूर कोशिश की। पार्टी ने लंबे समय तक सोच-विचार करने के बाद जाति-आधारित छोटे-छोटे दलों के साथ गठबंधन किया। समाजवादी पार्टी ने इसी इरादे से कई गैर-यादव ओबीसी और पिछड़े चेहरों को भी भाजपा तोड़कर अपने में मिलाया था। दूसरी तरफ बीजेपी ने भी अपनी पुरानी रणनीति को नए सिरे से तैयार की थी। अपने पुराने साथियों को और मौका दिया। साथ ही बीजेपी ने पूर्वांचल में ओबीसी के बड़े चेहरे आरपीएन सिंह को कांग्रेस से तोड़कर भी अपने साथ लेकर आई थी। जब सारे परिणाम आ चुके हैं तो स्पष्ट है कि बीजेपी के सहयोगी दलों का प्रदर्शन, समाजवादी पार्टी के सहयोगियों के मुकाबले काफी अच्छा रहा है।
पटेल और निषाद की पार्टी ने ज्यादा सीटें जीतीं यूपी चुनाव में इस बार भाजपा ने सिर्फ अपनी पुरानी सहयोगी अपना दल (सोनेलाल) और निषाद पार्टी के साथ गठबंधन किया था। जातियों के इस खेला में सपा इसबार उससे ज्यादा मजबूत दिख रही थी। उसने राष्ट्रीय लोक दल, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और अपना दल (के) के साथ गठबंधन किया था। उसका एनसीपी के साथ भी गठबंधन था। अब जरा भाजपा और सपा के इन सभी सहयोगियों के प्रदर्शनों की तुलना कीजिए। केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल की अगुवाई वाला अपना दल (सोनेलाल) 17 सीटों पर लड़ा और 12 सीटें जीता। इसी तरह संजय निषाद की निषाद पार्टी ने पहली बार अपने चुनाव निशान पर इलेक्शन लड़ा और 10 में से 6 सीटें जीत गई। यानि बीजेपी गठबंधन में इन दोनों दलों की स्थिति पहले से और मजबूत हुई है।
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सपा के सहयोगियों का प्रदर्शन भाजपा के पार्टनरों की तुलना में फीका रहा अब जरा विपक्षी खेमे में अखिलेश यादव की पार्टनर पार्टियों के प्रदर्शन पर गौर फरमाइए। पश्चिम यूपी में सपा ने आरएलडी को 33 सीटें दीं। उम्मीद थी कि किसान आंदोलन के बाद मुस्लिम-जाट को एकसाथ लाकर छोटे चौधरी जयंत भाजपा का जाट लैंड में सूपड़ा साफ करवा देंगे। हालांकि, उनका अनुमान पूरी तरह गलत नहीं था। लेकिन, यह बहुत ज्यादा काम नहीं कर पाया। हां, आरएलडी के पिछली बार एक भी विधायक नहीं थे। लेकिन, इस बार वह 8 सीटें जरूर जीत गई है। वैसे जयंत चौधरी अपने इलाके बड़ौत में भी भाजपा को जीतने से नहीं रोक पाए। इसी तरह ओम प्रकाश राजभर की सुभासपा को चुनाव लड़ने के लिए सपा ने 19 सीटें दी थीं। इनमें से वह सिर्फ 6 सीटें ही जीत सकी।
सपा के दो और सहयोगी भी हुए चित अखिलेश यादव की तीसरी सहयोगी पार्टी थी अपना दल (के), जो खाता भी नहीं खोल सकी। अलबत्ता इसकी नेता और अनुप्रिया पटेल की बहन पल्लवी पटेल ने हाईप्रोफाइल सिराथू विधानसभा क्षेत्र में डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य को जरूर हरा दिया। लेकिन, यहां उन्होंने साइकिल के निशान पर चुनाव लड़ा है। समाजवादी पार्टी की चौथी सहयोगी थी, शरद पवार की एनसीपी। इसे अखिलेश ने एक सीट चुनाव लड़ने के लिए दिया था और वो वहां भी चित हो गई।
तीन दलबदलुओं में दो को वोटरों ने नकारा अब उन दलबदलू नेताओं की बात जो चुनाव शुरू होने के बाद मंत्री पद से इस्तीफा देकर समाजवादी पार्टी में शामिल हुए थे। स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और धरम सिंह सैनी। इन सब ने पांच साल तक सत्ता सुख भोगने के बाद बीजेपी छोड़ी थी। इन सबको एक्सपर्ट अपनी-अपनी जातियों के बड़े नेता बताकर पेश कर रहे थे और कहा जा रहा था कि इनके जाने के बाद भाजपा को पूर्वांचल में बहुत बड़ा नुकसान हो सकता है। चौहान तो अपनी सीट जीत गए हैं। लेकिन, मौर्य और सैनी अपनी विधायकी तक नहीं बचा पाए। अखिलेश ने मौर्य को अपने साथ लाकर यह सोचा था कि उनके साथ ही कुशवाहा समाज का वोट भी पूरी तरह से उनके समर्थन में आ जाएगा। लेकिन, नतीजे आए तो पता चला कि मौर्य का प्रभाव जिन कुशीनगर, गोरखपुर और देवरिया जिलों में हैं, वहां की सारी सीटें बीजेपी जीत गई।