लखनऊ। ‘‘भारतवर्ष की लोकगायन परम्परा में कजरी का बड़ा महत्व है। बनारस व मीरजापुर के कजरी अखाड़े बहुत लोकप्रिय रहे। कजरी दंगल की समृद्ध परम्परा अब धीरे-धीरे समाप्ति की ओर है। सोलहवीं सदी के अंत में बनारस के खलील और अब्दुल हबीब जैसे गवैयों के गाये गीत आज भी लोगों की ज़ुबान पर हैं। सरकार तथा लोक संगीत के क्षेत्र में कार्य कर रहे लोगों को कजरी दंगल के वार्षिक आयोजनों पर विचार करना चाहिए अन्यथा इन्हें लुप्त होने से बचाया नहीं जा सकता।’’

ये चिन्ता बुधवार को शुरु हुए पावस ऋतु आधारित लोकगीतों की आनलाइन कार्यशाला के दौरान जतायी गई। संगीत विदुषी प्रो. कमला श्रीवास्तव के निर्देशन में लोक संस्कृति शोध संस्थान द्वारा आयोजित कार्यशाला का शुभारम्भ उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी की पूर्व अध्यक्ष डा. पूर्णिमा पांडे ने गणेश परन के पढ़न्त के साथ की। उन्होंने पारम्परिक गीतों व लोकधुनों के संरक्षण-संवर्द्धन के लिए ऐसी कार्यशालाओं के निरन्तर आयोजन की आवश्यकता बताते हुए आयोजकों की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
कार्यशाला के प्रथम दिवस प्रो. कमला श्रीवास्तव ने चांचर व कहरवा ताल में निबद्ध ‘देवी मइया आईं हमरे बगिया मा’ गीत का अभ्यास कराया। उन्होंने कजरी गीतों की सुदीर्घ परम्परा, उनके प्रकार व गीतों में व्यक्त मनोभावों पर विस्तार से प्रकाश डाला।
लोक संस्कृति शोध संस्थान की सचिव सुधा द्विवेदी ने बताया कि कार्यशाला में अमेरिका, कनाडा के साथ ही कर्नाटक, महाराष्ट्र, बिहार, झारखंड, हरियाणा, दिल्ली, मध्यप्रदेश तथा यूपी के कई जनपदों से जुड़े लगभग सौ प्रतिभागी पारम्परिक गीतों का प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं जिनमें हर वर्ग के लोग सम्मिलित हैं। कार्यशाला 26 अगस्त तक चलेगी तथा 27 अगस्त को आयोजित लोक चौपाल में प्रतिभागियों को प्रमाण पत्र दिये जायेंगे।
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