JDU के अलग होने के बाद राज्यसभा में NDA की बढ़ी मुश्किलें, अब बिल पास कराने के लिए BJD और YSRCP के भरोसे भाजपा

जनता दल (यूनाइटेड) के साथ गठबंधन टूटने के बाद एनडीए की मुश्किलें बढ़ गई हैं। अब राज्यसभा में एनडीए की क्षेत्रीय पार्टियों पर निर्भरता बढ़ गई है। हालांकि, लोकसभा में बीजेपी की स्थिति मजबूत है इसलिए बीजेपी को महत्वपूर्ण बिल पास कराने में आसानी होगी। वहीं, राज्यसभा में समर्थन के लिए बीजद और वाईएसआर कांग्रेस जैसे क्षेत्रीय राजनीतिक दलों पर अधिक निर्भर रहना होगा। जेडीयू के राज्यसभा में 5 और लोकसभा में 16 सदस्य हैं। हालांकि, निचले सदन में बीजेपी के पास पूर्ण बहुमत है।

245 सदस्यीय राज्यसभा में बीजेपी के सिर्फ 91 सांसद हैं। दो निर्दलीय एवं 4 अन्नाद्रमुक सदस्यों समेत बीजेपी को कुल 110 सांसदों का समर्थन प्राप्त है, जबकि बीजेपी को किसी बिल को पास कराने के लिए कम से कम 123 वोटों की आवश्यकता होगी। इसके लिए उसे 3 और निर्दलीय और बीजद या वाईएसआरसीपी सांसदों के समर्थन की आवश्यकता होगी।

इन पार्टियों का भी समर्थन

बीजू जनता दल (बीजद) और वाईएसआर कांग्रेस पार्टी के राज्यसभा में 9-9 सांसद हैं। दोनों पार्टियों ने हाल के दिनों में प्रमुख विधेयकों को पारित कराने में सत्तारूढ़ दल को अपना समर्थन दिया है। वहीं, एनडीए के सहयोगी क्षेत्रीय दलों के 8 अन्य सांसदों में आरपीआई-ए के रामदास अठावले, सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट के हिशे लाचुंगपा, असम गण परिषद (एजीपी) के बीरेंद्र प्रसाद वैश्य, पट्टाली मक्कल काची (पीएमके) के अंबुमणि रामदास और तमिल मनीला कांग्रेस (मूपनार) के जी के वासन हैं।

इनके अलावा, नेशनल पीपुल्स पार्टी के वानवीरॉय खारलुखी, मिजो नेशनल फ्रंट के के वनलालवेना और यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी (लिबरल) के रवंगवारा नारजारी भी भारतीय जनता पार्टी का समर्थन कर रहे हैं। इसके अलावा, असम से अजीत कुमार भुइयां और हरियाणा से कार्तिकेय शर्मा निर्दलीय सांसद भी सत्तारूढ़ एनडीए के साथ हैं।

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जेडीयू के राज्यसभा में 5 सांसद

जेडीयू के राज्यसभा में पांच सांसद हैं, जिनमें डिप्टी चेयरमैन हरिवंश भी शामिल हैं। अब गठबंधन टूटने के बाद उनकी डिप्टी चेयरमैन की कुर्सी भी अधर में लटकी है। उनको भी इस्तीफा देना पड़ सकता है। ऐसा भी माना जा रहा है कि वो पूर्व लोकसभा अध्यक्ष की राह पर चलकर पद पर बने रह सकते हैं। हालांकि, अगर वो ऐसा करते हैं तो हो सकता है उन्हें भी चैटर्जी की तरह इसका खामियाजा भुगतना पड़े। बता दें कि साल 2008 में वाम दलों ने मनमोहन सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। ऐसे में सीपीआईएम चाहती थी कि चैटर्जी लोकसभा अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दें। चैटर्जी ने ऐसा नहीं किया और कहा कि स्पीकर किसी पार्टी का नहीं होता, जिसके बाद उन्हें सीपीआईएम ने पार्टी से निकाल दिया।