पाक्सो एक्ट में मजिस्ट्रेट कोर्ट के फैसले को निरस्त करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जजों को नसीहत दी कि मशीनी अंदाज में काम न करें। फैसला देते वक्त दिमाग का भी इस्तेमाल करें। हाईकोर्ट का कहना था कि जज ऐसे फैसला मत दें जैसे लगे कि कागज भरने की खानापूर्ति (Flling up blanks) हुई है। हाईकोर्ट ने ये भी कहा कि इस तरह के रवैये से न्याय प्रभावित होता है।

हाईकोर्ट के जस्टिस शमीम अहमद ने कहा कि आपराधिक मामले में आरोपी को सम्मन करना एक गंभीर मामला है। कोर्ट के आदेश से दिखना चाहिए कि इसमें कानूनी प्रावधानों पर विचार किया गया है। फैसले से लगे कि कोर्ट ने अपने दिमाग का इस्तेमाल किया है। हाईकोर्ट ने पाक्सो एक्ट के एक मामले में आरोपी की याचिका पर सुनवाई करते हुए ये बात कही। याचिकाकर्ता का कहना था कि उसके खिलाफ जो भी कार्रवाई की गई है वो सरासर गलत है। आरोपी के वकील ने मजिस्ट्रेट कोर्ट के सम्मन पर सवालिया निशान लगाते हुए कहा कि ऐसा लगता है कि निचली अदालत ने दिमाग का इस्तेमाल किया ही नहीं। केवल मशीनी अंदाज में फैसला दे दिया गया।
पब्लिक प्रॉसीक्यूटर ने अपने जवाब में कहा कि याचिका डालने वाले शख्स पर एक लड़की को बहलाने फुसलाने का आरोप है। वो लड़की को अपने साथ भाग चलने के लिए मजबूर कर रहा था। हालांकि सरकारी वकील ने इस बात पर कोई एतराज नहीं जताया जिसमें आरोपी के वकील ने कहा था किस फैसला मशीनी अंदाज में महज कागज काले करने वाले अंदाज में दिया गया।
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हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि मजिस्ट्रेट को जांच अधिकारी की रिपोर्ट पर बारीकी से गौर करना था। उन्हें देखना था कि जो साक्ष्य जुटाए गए वो क्या आरोपी को सम्मन करने के लिए पर्याप्त हैं। जस्टिस शमीम अहमद ने कुछ फैसलों का जिक्र करते हुए कहा कि कोर्ट जो भी फैसला दे वो तार्किक होना चाहिए। केवल काम को दिखाने के लिए मशीनी अंदाज में कुछ भी कहना पूरी तरह से गलत है।
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