जिस अखिलेश यादव ने रामपुर और आजमगढ़ के लोकसभा उपचुनाव में वहां झांकना भी मुनासिब नहीं समझा उन्हीं अखिलेश यादव ने इन दिनों मैनपुरी में जान लड़ा रखा है. रामपुर और आजमगढ़ के उपचुनाव में उनका न जाना तो सूबे में बड़ा सियासी मसला भी बना था. विपक्ष के बार-बार तंज और मीडिया के सवालों के बावजूद अखिलेश यादव ने एक बार भी इन दोनों सीटों की ओर रूख नहीं किया लेकिन, अब वे मैनपुरी में जी-जान से जुटे हैं.
मैनपुरी में उनके सघन चुनावी प्रचार अभियान से किसी को दिक्कत नहीं हो सकती लेकिन, ये सवाल तो बनता ही है कि इस सीट के लिए इतनी मशक्कत क्यों. क्या उन्हें भरोसा नहीं रहा कि सपा के लिए मैनपुरी की सीट सबसे सेफ रही है. तो फिर कौन से सियासी समीकरण चल रहे हैं उनके दिमाग में. इसे पांच बिन्दुओं में समझने की कोशिश की जा सकती है.
पिता की विरासत को कब्जे में रखना- मैनपुरी लंबे समय से मुलायम सिंह की सीट रही है. अब उनके निधन के बाद उस विरासत को समटने की जद्दोजहद में अखिलेश यादव लगे हैं. इसीलिए उन्होंने दूसरे प्रत्याशियों को दरकिनार कर अपनी पत्नी डिंपल यादव को ये सीट दी है. इसे खोने का कोई भी जोखिम वो उठाना नहीं चाहते. आजमगढ़ और रामपुर वो पहले ही गंवा चुके हैं.
रामपुर और आजमगढ़ से सबक- अखिलेश यादव को भरोसा रहा होगा कि रामपुर और आजमगढ़ में वो अजेय हैं. दोनों ही सीटों पर एक भी दिन चुनाव प्रचार में न जाना इसी को तो दिखाता है और तो और सपा के नेताओं ने भी तब कहा था कि इन दोनों सीटों के लिए कार्यकर्ता ही बहुत हैं. सबसे ज्यादा हैरानी तो अखिलेश यादव के आजमगढ़ उपचुनाव में न जाने पर हुई थी क्योंकि ये सीट उन्हीं की थी. मैनपुरी के करहल से विधायक बनने के बाद अखिलेश ने आजमगढ़ संसदीय सीट छोड़ी थी. इसी अतिआत्मविश्वास में अखिलेश यादव दोनों सीटें हार गये. अब वो मैनपुरी में इतिहास के दोहराव के भागी नहीं बनना चाहते.
जसवंतनगर का मैनपुरी लोकसभा में होना और शिवपाल पर भरोसा- इटावा की जसवंतनगर सीट मैनपुरी लोकसभा सीट में आती है जहां से शिवपाल यादव विधायक हैं. शिवपाल यादव और अखिलेश यादव में लंबे समय से एका नहीं रहा है. कुछ सियासी मौकों पर दोनों जरूर साथ रहे. इस बार भी काफी ना – नुकुर के बाद शिवपाल और अखिलेश साथ आने को मजबूर हुए हैं. ऐसे में अखिलेश यादव शिवपाल यादव पर कितना भरोसा कर सकते हैं कि वो अपनी विधानसभा में डिंपल यादव के लिए वोट करवायेंगे.
शाक्य वोटरों की भूमिका को लेकर संशय- मैनपुरी लोकसभा सीट पर यादवों के बाद दूसरी सबसे बड़ी कास्ट शाक्य हैं. वो यादवों से थोड़े ही कम हैं. मुलायम सिंह के दौर में उन्हें शाक्य वोटरों का भी साथ मिला करता था लेकिन, अब उनके बाद वैसे ही चलता रहेगा, ये जरूरी नहीं. शाक्य वोटरों की गोलबन्दी के लिए ही भाजपा ने पुराने सपाई रघुराज शाक्य को चुनाव में उतारा है. अखिलेश यादव ने भी रातों-रात ऐसा ही किया. पूरे प्रदेश की ईकाई भंग है लेकिन, अखिलेश यादव ने हाल ही में एक शाक्य को ही मैनपुरी की कमान दे दी. पूर्व विधायक आलोक शाक्य को मैनपुरी का जिलाध्यक्ष बनाया गया है.
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बसपा के बिना और भाजपा की एण्ट्री से सुरसुरी- 2019 के जिस लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव मैनपुरी से सांसद बने थे वो सपा और बसपा ने मिलकर लड़ा था. दोनों पार्टियों के साथ होने के बावजूद मुलायम सिंह यादव की मार्जिन एक लाख से कम थी. तभी लग लग गया था कि भाजपा ने गढ़ की ईंटें हिला दी हैं. 2022 के चुनाव में ये साफ दिख गया जब मैनपुरी की सदर और भोगांव की सीट भाजपा ने जीत ली. 2017 में भाजपा के पास सिर्फ भोगांव थी लेकिन, 5 साल बाद मैनपुरी भी झटक ली. यानी अब चार में से दो पर ही सपा का कब्जा है. उपर से शिवपाल यादव की जसवंतनगर सीट को लेकर भी अखिलेश यादव के मन में आशंकायें हिलोरें मार रही होंगी. चिन्ता जायज भी है.