नई दिल्ली: हिंदी (Hindi) को अंग्रेजी के विकल्प के रूप में पेश किए जाने संबंधी केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह (Amit Shah) के हालिया बयान से दक्षिण में हलचल मच गई है. तमिलनाडु (Tamilnadu), जिसे द्रविड़ पहचान का उद्गम स्थल माना जाता है, पारंपरिक रूप से हिंदी विरोधी रहा है. वास्तव में राज्य पर हिंदी थोपने के लिए कुछ तबकों द्वारा गुमराह किए गए कदमों ने 60 के दशक में द्रविड़ (Dravid Politics) आंदोलन को गति दी थी और तब से इसे कायम रखा है. हिंदी विरोधी आंदोलन ने प्रभावी रूप से कांग्रेस को उस राजनीतिक किनारे पर धकेल दिया था, जहां वह आज भी बनी हुई है. आश्चर्य नहीं कि शाह के हालिया बयान की सबसे मुखर आलोचना तमिलनाडु में हुई. नीट परीक्षाओं को लेकर केंद्र के खिलाफ पहले ही भड़के तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने शाह के बयान पर अभी कुछ नहीं कहा है.
अमित शाह के खिलाफ आए राजनीतिक दल
तमिलनाडु में एक बार फिर भाषा को लेकर जंग छिड़ गई है. राज्य में यह पहली बार नहीं हो रहा है. इससे पहले भी भाषा लोगों के बीच बहस का मुद्दा बन चुकी है. सत्तारूढ़ डीएमके, विपक्षी अन्नाद्रमुक, पीएमके, एमडीएमके और अन्य राजनीतिक दल शाह के बयान के खिलाफ हैं. डीएमके के ‘मुरासोली’ अखबार ने अपनी ओर से शाह के विचारों के खिलाफ एक लेख प्रकाशित किया था. डीएमके की सांसद कनिमोझी के मुताबिक, ‘हिंदी भाषा देश को जोड़ने का नहीं बल्कि तोड़ने का काम करेगी.’ उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार और उसके मंत्रियों को हिंदी विरोधी आंदोलन के इतिहास और इसके लिए दी गई कई लोगों की कुर्बानी के बारे में पता होना चाहिए. राज्य के भाजपा नेताओं ने खुद कहा था कि पार्टी तमिलनाडु के लोगों पर हिंदी भाषा थोपने को स्वीकार नहीं करेगी.
शाह की सफाई भी नहीं आ रही काम
तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे राज्यों में राजनीतिक दलों ने इसे उन पर हिंदी थोपने की कोशिश के रूप में देखा और इसके खिलाफ आंदोलन शुरू करने की अपनी मंशा की घोषणा की. जैसे ही अमित शाह की टिप्पणी के खिलाफ नेताओं ने आवाज उठानी शुरू की तो शाह ने स्पष्ट किया, ‘उन्होंने कभी भी अन्य क्षेत्रीय भाषाओं पर हिंदी थोपने की मांग नहीं की थी. उन्होंने लोगों से सिर्फ अनुरोध किया था कि हिंदी को अपनी मातृभाषा के साथ दूसरी भाषा के रूप में सीखा जाना चाहिए.’ शाह ने क्षेत्रीय दलों को शांत करने के लिए कहा कि वह खुद गुजरात से आते हैं, जो एक गैर-हिंदी राज्य है.
इन मसलों ने आग में घी डालने का किया काम
इससे पहले, केंद्र सरकार की नई शिक्षा नीति (एनईपी) के मसौदे में स्कूलों में तीन भाषा के फॉमूर्ले के तहत हिंदी के अनिवार्य शिक्षण के प्रस्ताव पर भी विवाद खड़ा हो गया था. जब तमिलनाडु, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल राज्यों ने इसका विरोध करना शुरू किया तो इसे संशोधित कर दिया गया. रेल मंत्रालय ने भी सिर्फ हिंदी और अंग्रेजी में भर्ती परीक्षा आयोजित करने का निर्णय लिया था, लेकिन विरोध के बाद इसे भी वापस ले लिया गया. इसी तरह दक्षिण रेलवे ने संभागीय नियंत्रण कार्यालय और स्टेशन मास्टरों को निर्देश जारी किया था कि वे हिंदी या अंग्रेजी में बोलें और गलतफहमी को रोकने के लिए क्षेत्रीय भाषा से बचें. इसे भी विरोध के बाद वापस ले लिया गया.
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1930 से जारी है राज्य में हिंदी विरोध
वैसे भी हिंदी विरोधी आंदोलन की जड़ें तमिलनाडु में भारत की आजादी से पहले से 1930 के दशक से जारी हैं. तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी में आंदोलन देखा गया था जब स्कूलों में हिंदी को एक विषय के रूप में पेश करने की मांग की गई थी, जब स्वर्गीय सी. राजगोपालाचारी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री थे. इस कदम का ई.वी. रामासामी और जस्टिस पार्टी ने विरोध किया और तीन साल तक आंदोलन चला. दो प्रदर्शनकारियों की जान चली गई और 1,000 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया. हालांकि 1939 में जर्मनी के खिलाफ युद्ध में भारत को एक पक्ष बनाने के ब्रिटेन के फैसले का विरोध करते हुए कांग्रेस सरकार ने इस्तीफा दे दिया. अगले साल, ब्रिटिश सरकार ने हिंदी शिक्षण आदेश वापस ले लिया. रामासामी और डीके के नेतृत्व में फिर से हिंदी विरोधी आंदोलन का दूसरा चरण 1946-1950 के दौरान आया था, जब भी सरकार ने स्कूलों में हिंदी को वापस लाने की कोशिश की. इसके बाद में 1953 में डीएमके ने कल्लुकुडी शहर का नाम बदलकर डालमियापुरम (उद्योगपति रामकृष्ण डालमिया के नाम पर) करने का विरोध इस आधार पर किया कि यह उत्तर द्वारा दक्षिण के शोषण को दर्शाता है. आधिकारिक भाषा अधिनियम के पारित होने के विरोध में 1963 में अन्नादुरई के नेतृत्व में द्रमुक ने एक विरोध शुरू किया. आशंकाओं को बढ़ाते हुए कांग्रेस के मुख्यमंत्री एम. भक्तवचलम ने तीन भाषाओं अंग्रेजी, तमिल और हिंदी का फॉमूर्ला लाए. हिंदी को एकमात्र आधिकारिक भाषा बनने के खिलाफ 1965 में तमिलनाडु में फिर से प्रमुख हिंदी विरोधी विरोध शुरू हो गया. आंदोलन का प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार में दो मंत्रियों पर प्रभाव पड़ा जिसके कारण सी. सुब्रमण्यम और ओ.वी. अलागेसन ने अपने पदों से इस्तीफा दे दिया. द्रमुक और छात्रों के नेतृत्व में आंदोलन, 1967 में द्रविड़ पार्टी के राज्य में सत्ता में आने के प्रमुख कारणों में से एक था, जिसने कांग्रेस को विस्थापित किया. उस चुनाव ने आज तक के लिए तमिलनाडु में कांग्रेस के शासन को समाप्त कर दिया.