दोबारा अपनी नियुक्ति के बाद, 19 जनवरी 1990 को, जगमोहन (Jagmohan) बतौर राज्यपाल जम्मू (Jammu) के राज भवन में थे. इसी शाम, राजभवन के लैंडलाइन फोन पर कश्मीर (Kashmir) से कई कॉल आने लगे. ये कॉल कश्मीर पंडितों के थे, घबराए हुए कश्मीरी पंडित खुद को बचाने के लिए राज्यपाल से गुहार लगा रहे थे. उन्होंने, राज्यपाल को बताया कि पंडितों के घर के बाहर और मस्जिदों में भीड़ जमा हो गई है, जो पुरुषों को राज्य छोड़ने और महिलाओं को यहीं रहने के लिए कह रही है. इसके बाद, 21 जनवरी की सुबह जगमोहन घाटी पहुंचे.
बीते 48 घंटों में कश्मीर के इतिहास में बड़ा बदलाव आ चुका था. जगमोहन का राज्यपाल के तौर पर दोबारा कश्मीर आना, कश्मीरी पंडितों के लिए और अधिक अनिष्टकारक होने के अलावा और कुछ नहीं था. वैसे तो बीते कुछ समय से घाटी में तनाव पसरा हुआ था, लेकिन गावकदल नरसंहार, आतंकवादियों द्वारा कश्मीरी पंडितों को टारगेट करने का तात्कालिक कारण बन गया.
गावकदल नरसंहार
19 जनवरी की रात, सुरक्षाबलों ने श्रीनगर में घर-घर जाकर तलाशी ली, जाहिर तौर पर वे हथियारों और छिपे हुए आतंकवादियों की खोज में थे. इस ऑपरेशन के दौरान सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार किया गया. अगले दिन, जब श्रीनगर के गावकदल ब्रिज पर प्रदर्शनकारियों की भीड़ उमड़ पड़ी तब पैरामिलिट्री फोर्से को गोली चलानी पड़ी. इस दौरान करीब 50 लोगों की मौत हो गई, जिसे ‘गावकदम नरसंहार’ के नाम से जाना जाता है.
इस फायरिंग से जगमोहन का कोई लेना देना नहीं था. फिर भी, कई कश्मीरियों के लिए, ‘गावकदल नरसंहार’ उनके शासन के लिए एक छवि बन गई. इसी के साथ-साथ पंडितों का निष्कासन तेजी से होने लगा. पंडितों को चुन-चुन कर निशाना बनाने का काम मुख्य तौर पर जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट और इसके आतंकवादी कर रहे थे, इनमें यासीन मलिक, बिट्टा कराटे ऊर्फ फारूख अहमद डार और जावेद नाल्का शामिल थे.
उनका ‘अशांति’
अपनी किताब My Frozen Turbulence in Kashmir में जगमोहन कश्मीरी पंडितों से आए फोन कॉल के बारे में बात करते हैं. जगमोहन लिखते हैं, “कॉल करने वाले कुछ लोगों ने मुझसे कहा कि वे बस अपने टेलीफोन पर बने रहेंगे ताकि मैं मस्जिदों पर लगे सैकड़ों लाउडस्पीकरों से निकलने वाले भयानक नारों और उग्र संदेशों को सुन सकूं.”
जगमोहन द्वारा अपना बचाव करना
तो फिर, मदद की गुहार लगाने वाले इन कॉल्स को लेकर राज्यपाल की प्रतिक्रिया क्या रही? अपनी कार्रवाइयों के बारे में बताने के लिए जगमोहन ने जनवरी 2011 में The Indian Express पर एक लेख लिखा था. इसमें वे लिखते हैं, “जैसे मैंने अपना कार्य संभाला, मैंने इस पलायन को रोकने की बहुत कोशिश की. 7 मार्च 1990 को जारी हुए प्रेस नोट से यह बात स्पष्ट हो जाती है, उस समय इस नोट को काफी प्रचार मिला था.
अन्य बातों के साथ-साथ इस नोट में कहा गया: “जगमोहन ने पलायन कर चुके पंडित समुदाय से अपील की कि जो जम्मू चले गए हैं वह लोग घाटी में वापस आ जाएं. उन्होंने जम्मू से लौटने वालों के लिए चार स्थानों पर, श्रीनगर, अनंतनाग, बारामूला और कुपवाड़ा में अस्थायी शिविर स्थापित करने की पेशकश की.” इस लेख में जगमोहन ने यह भी दावा किया था कि उनके और पंडितों के खिलाफ दुष्प्रचार करने के लिए बड़ी साजिश की गई थी.
सैफुद्दीन सोज का दावा
हालांकि, कांग्रेस के सीनियर नेता सैफुद्दीन सोज की किताब, Kashmir: Glimpses of History and the Story of Struggle में जगमोहन की बातों का खंडन किया गया है.
सोज लिखते हैं: “कई सूत्रों से भरोसेमंद प्रमाण मिले जिससे यह माना जा सकता है कि बड़े पैमाने पर पलायन की वजह जगमोहन रहे, जिन्हें 19 जनवरी 1990 को दूसरी बार राज्यपाल बनाया गया. पलायन को बेहतर मानने के पीछे उनके तर्क थे. पहला, इससे कश्मीरी पंडित खुद को सुरक्षित महसूस कर पाएंगे और इससे उनकी हत्या को रोका जा सकेगा. दूसरा, ऐसा कर हालात से बेहतर तरीके से निपट पाएंगे, क्योंकि वहां आतंकवादी गतिविधियों को खत्म करने के लिए कठोर कानून थे और मिश्रित जनसंख्या के बीच इन कानूनों का स्वच्छंद रूप से रूप से इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था.”
2017 में दिए एक इंटरव्यू में, जो श्रीनगर के साप्ताहिक अखबार Kashmir Life में प्रकाशित हुआ था, कश्मीर पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी इसरार खान यह आरोप लगाते हैं कि राज्यपाल के निर्देशों के कारण कश्मीरी पंडितों को घाटी से भागना पड़ा था. उनके मुताबिक, अप्रैल 1990 में वह श्रीनगर के कोठीबाग पुलिस स्टेशन पर सब-डिविजनल पुलिस ऑफिसर (SDPO) के तौर पर पर तैनात थे. उन्हें राजभवन बुलाया गया, जहां जगमोहन मुख्य सचिव और श्रीनगर के एसएसपी अल्लाह बक्शन ने उन्हें कहा कि वह पंडितों को जम्मू ले जाने वाली बसों की सुरक्षित आवाजाही सुनिश्चित करें और उन्हें सभी तरह के सहयोग उपलब्ध कराएं. इस अफसर ने दावा किया था कि स्वयं जगमोहन में उन्हें निर्देश दिया था कि, “लोडिंग शेडिंग में मदद करना और कोई अटैक-शटैक नहीं होने चाहिए.”
‘The Story of Kashmir and The Generation of Rage in Kashmir’ के लेखक डेविड देवदास लिखते हैं कि जगमोहन ने ही पंडितों के जम्मू स्थिति कैम्प में शिफ्ट होने की व्यवस्था की थी, हालांकि नई दिल्ली में तत्कालीन गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद द्वारा इस विषय पर कई बड़े फैसले लिए गए थे. हालांकि, कई किताबें और लेख ऐसे हैं जो जगमोहन को कश्मीरी पंडितों के पलायन का सूत्रधार बताने वाले दावों को खारिज करते हैं.
हालात की गंभीरता को आंकने में असफलता
My Kashmir: The Dying of the Light किताब के लेखक वजाहत हबिबुल्लाह के मुताबिक, भले ही जगमोहन को सीधे तौर पर कश्मीरी पंडितों के पलायन के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन वे पंडितों को सुरक्षा की भावना उपलब्ध कराने में असफल रहे थे. 1989-90 के दौरान घाटी में प्रशासक रहे इस अधिकारी ने अपनी किताब में कहा है कि तब के राज्यपाल हालात को समझने में नाकाम रहे थे. हबिबुल्लाह लिखते हैं कि राज्यपाल से यह कहा गया था कि वे टीवी संदेश के जरिए मुस्लिमों से अपील करें कि वे अपने पड़ोसियों (पंडितों) को पलायन करने से रोकें, लेकिन राज्यपाल इस सलाह पर सहमत नहीं हुए थे. “इसके बजाए उन्होंने (जगमोहन) उन सभी के लिए, जो अपने आपको असुरक्षित महसूस करते हैं, घाटी में रिफ्यूजी कैम्प तैयार करने की घोषणा कर दी. मेरे विचार से इससे पलायन को बढ़ावा मिला.”
जगमोहन के आने से पहले पलायन शुरू हो गया था
अपनी किताब A Long Dream of Home में लेखक सिद्धार्थ गिगू उन दावों को खारिज करते हैं कि जगमोहन पंडितों के पलायन की व्यवस्था की. वह लिखते हैं, “1989 में ही पंडितों की हत्या और अपहरण की घटनाएं होने लगी थी. अक्टूबर-नवंबर में एक हिट लिस्ट जारी की गई थी और इसमें मेरे एक अंकल, जो कि एक डॉक्टर थे, भी शामिल थे. तो फिर यह कैसे संभव कि जगमोहन ने यह सब व्यवस्था की थी, जो कि उस समय वहां थे ही नहीं?”
Srinagar Times के तत्कालीन एडिटर गुलाम मोहम्मद सोफी गिगू की बात को सही मानते हैं. 1997 को The Times of India को दिए एक इंटरव्यू में गुलाम मोहम्मद सोफी ने दृढ़ता से यह बताया था कि पंडितों का पलायन उस योजना की अगली कड़ी था जिसे पहले से ही राज्य के बाहर तैयार किया गया था. इसका जगमोहन से कोई लेना देना नहीं था.” बहुत संभव है कि तत्कालीन राज्यपाल ने नई दिल्ली के कहने पर कश्मीरी पंडितों के सुरक्षित निकासी का मार्ग प्रशस्त किया हो और वह स्वयं बलि का बकरा बन गए हों.
सभी के लिए वफादार व्यक्ति
कई लोगों का मत है कि जगमोहन को दूसरी बार राज्यपाल नियुक्त करने का निर्णय सईद का था. इन लोगों का आरोप है कि केंद्रीय गृहमंत्री द्वारा जगमोहन को इस कठिन कार्य के लिए इसलिए चुना गया ताकि वह (गृहमंत्री) मुख्यमंत्री फारूख अबदुल्ला से अपना हिसाब-किताब चुका सकें. यहां तक कि वीपी सिंह के नेतृत्व वाले गठबंधन के भीतर, अरुण नेहरू ने भी जगमोहन को राज्यपाल के रूप में वापस भेजने के लिए कड़ी मशक्कत की थी.
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इससे पहले, 1984 में इंदिरा गांधी द्वारा जगमोहन को इसी कार्य को करने के लिए भेजा गया था. उन्होंने दोनों ही बार अपने मिशन को पूरा किया. पहली बार, वह फारूख के स्थान पर अपने साले जीएम शाह को बैठाने में कामयाब रहे थे और दूसरी बार, जगमोहन द्वारा अन्य नाम सुझाए जाने के कारण फारूख अबदुल्लाह ने आवेश में आकर इस्तीफा दे दिया.
जगमोहन हमेशा इन विवादों में रहे, आपातकाल में उनकी भूमिका और पैलेस में हुए तख्तापलट के मामले में. हालांकि, जब उन्हें दूसरी बार जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल नियुक्त किया गया, तब उनकी भूमिका से संबंधित विवाद उनकी विरासत बन गई है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)