आर.के. सिन्हा
अभी बिल्कुल हाल ही में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के एक कॉन्स्टेबल रीतेश रंजन ने छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के बस्तर क्षेत्र में अपने ही चार साथियों की गोली मारकर हत्या कर दी। आरोपी जवान को किसी तरह काबू में किया गया। यह गौर करने की बात है कि अपने ही साथियों पर सीआरपीएफ या अर्धसैनिक बल के किसी जवान ने पहली बार गोलियां नहीं बरसाईं हैं। अगर आप गूगल करें तो देखेंगे कि इस तरह की घटनाएं बार-बार हो रही हैं। इन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
पिछले साल जम्मू-कश्मीर में सीआरपीएफ के राज्य में तैनात दो जवानों ने क्रमश: अनंतनाग और अकूरा में खुदखुशी कर ली है। ये जवान राजस्थान और उत्तराखंड से थे। जब हर तरफ कोरोना वायरस से जुड़ी खबरें छप रही थीं तब सीआरपीएफ के दो जवानों के अपनी जीवन लीला को समाप्त कर लेने संबंधी खबर को प्रमुखता नहीं मिली थी। सीआरपीएफ के जवान अपने ही साथियों को गोलियों से भून डाले या फिर खुदखुशी कर ले यह अपने आप में चौंकाने वाली खबरें तो हैं। इनके कारणों को तो तलाशना ही होगा। वे उपाय भी करने होंगे ताकि ये फिर न हों।
सीआरपीएफ के जवान माओवादियों से लेकर जम्मू-कश्मीर में देश के शत्रुओं को धूल चटा रहे हैं। देश को आजादी मिलने के बाद यह 28 दिसंबर 1949 को सीआरपीएफ अधिनियम के लागू होने पर इस बल का गठन हुआ था। दरअसल सीआरपीएफ,सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ), भारतीय तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी), केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ), असम राइफल्स जैसे अर्ध सैन्य बलों के अधिकारी और जवान अत्यंत विषम हालातों में काम करते हैं। जाहिर है कि घरों से दूर रहने, पारिवारिक कलह और जीवन में अस्थिरता के कारण ये जवान किसी मामूली सी बात पर कभी-कभी बहुत बड़ा भावनात्मक कदम उठा लेते हैं।
एक बात यह भी कही जा रही है कि उपर्युक्त बलों के जवानों पर काम का बोझ और दबाव सदैव बना रहता है। इन्हें बड़ी मुश्किल से छुट्टी मिल पाती है। इस कारण कुछ जवान परेशान होने लगते हैं जब उन्हें पता चलता है कि उनके घर में किसी तरह की दिक्कत है और अवकाश मिल नहीं रहा है। सीआरपीएफ, बीएसएफ और आईटीबीपी के जवानों को असम से केरल और केरल से कश्मीर में भेजा जाता रहता है। मतलब इनके जीवन में कभी भी स्थायित्व नहीं आ पाता। यह भी एक बड़ा कारण है, जिसके चलते ये जवान परेशान हो जाते हैं।
छत्तीसगढ़ की हालिया घटना को लेकर कहा जा रहा है कि गोलीबारी करने वाला जवान कथित तौर पर ‘भावनात्मक तनाव’ से गुजर रहा था। इस वजह से अचानक उसने मनोवैज्ञानिक संतुलन खो दिया। स्थानीय पुलिस ने मामले की जांच शुरू कर दी है और कानूनी कार्रवाई तो की ही जाएगी। सीआरपीएफ ने घटना के कारण का पता लगाने और उपचारात्मक उपाय के सुझाव देने के लिए जांच के आदेश दिए हैं। पर ये सब तो रस्मी बातें हो गई हैं।
इस तरह की हरेक घटना के बाद यही कहा जाता है कि जवानों में मानसिक एवं भावनात्मक तनाव का पता लगाने के निर्देश दे दिए गए हैं। पर इससे अधिक कुछ नहीं होता। अगर बात 2018 के बाद हुई इस तरह की घटनाओं की करें तो किसी जवान द्वारा साथी कर्मी की हत्या की 13 घटनाओं में 18 लोगों की मौत हो चुकी है। सीआरपीएफ में इस साल इस तरह की पांच घटनाओं में छह लोगों की मौत हो चुकी है। ये सब आंकड़े बहुत कुछ कह रहे हैं। कह रहे हैं कि घरों से हजारों किलोमीटर दूर निर्जन स्थानों पर काम करने वाले सुरक्षा बलों के कर्मी रास्ता न भटकें, इसके लिए लगातार कोशिशें करनी होंगी।
एक सवाल यह भी है कि जवानों द्वारा अपने ही साथियों पर गोली चलाने के बाद की घटनाओं पर अभी तक किस तरह का एक्शन लिया गया ताकि इन घटनाओं को रोका जा सकता। जवानों का अपने साथियों को मारने का सिलसिला सिर्फ सीआरपीएफ में ही नहीं चल रहा। इस तरह के हादसे अन्य सैन्य बलों में भी हो रहे हैं। पिछले सितंबर महीने में त्रिपुरा में तैनात बीएसएफ के दो जवानों ने एक-दूसरे पर गोलियां चला दी थी। इसमें दोनों की मौत हो गई थी। यह घटना भारत-बांग्लादेश सीमा पर हुई। तो बात यह है कि अर्ध सैन्य बलों के जवानों के मसलों को मानवीय सोच के तहत हल करना ही होगा। अगर ये खुद ही तनाव में रहेंगे तो ये देश के दुश्मनों से लड़ेंगे किस तरह से।
अब इसी संदर्भ में दिल्ली पुलिस की भी बात करना चाहूंगा। दिल्ली पुलिस के कर्मचारी भी तनाव के चलते आत्महत्याएं कर रहे हैं। इसका इस बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि औसतन हर 35 दिन में एक पुलिस कर्मी ने आत्महत्या की है। एक आरटीआई के जवाब में दिल्ली पुलिस ने बताया कि जनवरी 2017 से 30 जून 2020 तक पुलिस फोर्स के 37 कर्मियों और अधिकारियों ने आत्महत्या की है। लेकिन आत्महत्या करने वालों में सबसे ज्यादा संख्या सिपाही और प्रधान सिपाही (हेड कांस्टेबल) स्तर के कर्मियों की है। पुलिस से मिली सूचना के मुताबिक, 14 कर्मियों ने ड्यूटी के दौरान आत्महत्या की है। जबकि 23 कर्मचारियों ने ऑफ ड्यूटी आत्महत्या की। अपनी जान देने वाले कर्मियों में दो महिला सिपाही भी शामिल हैं। इनमें से एक द्वारका जिले में तैनात थीं जबकि दूसरी तृतीय वाहिनी से संबंधित थीं।
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यहां भी वही हो रहा है जो अर्ध सैनिक बल झेल रहे हैं। जैसे लंबी ड्यूटी करना और कई अवसरों पर जरूरत होने पर भी अवकाश का न मिलना। संभवत: इस वजह से वे जिंदगी को खत्म करने जैसा कठोर कदम उठा लेते हैं। अवकाश न मिलने से ज्यादा जवानों को अवकाश स्वीकृत करने में भेदभाव और भाई बंदी अखरती है। इस मसले का लब्बोलुआब यह है कि संबंधित विभागों और अफसरों को तुरंत कदम उठाने होंगे ताकि विभिन्न बलों से जुड़े कर्मी पूरी निष्ठा और तनाव रहित माहौल में काम करते रहें।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)