प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पंजाब की कांग्रेस सरकार और स्थानीय पुलिस की लापरवाही के कारण अपना फिरोजपुर दौरा पूरा किये बिना कल दिल्ली लौट आना पड़ा. सड़क जाम कर किसी प्रधानमंत्री का रास्ता रोका गया हो, सुरक्षा के साथ खिलवाड़ किया गया हो और स्थानीय प्रशासन मूक दर्शक बना रहा हो, ये शायद पहली बार ही हुआ. पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को याद रखना चाहिए कि इससे पहले जब भी किसी नेता ने मोदी के सीएम या फिर पीएम रहते हुए उनकी सुरक्षा के साथ खिलवाड़ किया है, उसे उसकी भारी सियासी कीमत चुकानी पड़ी है. पिछले दो दशक इसके बड़े गवाह हैं.
पंजाब के फिरोजपुर जिले से बुधवार की शाम पीएम नरेंद्र मोदी के रुके हुए काफिले की जो तस्वीरें आईं, वो देश के लोगों को अवाक कर देने वाली थीं. हाल के दशकों में कभी याद नहीं आता कि किसी प्रधानमंत्री का काफिला सड़क जाम कर दिये जाने की वजह से रुका हो और करीब बीस मिनट तक इंतजार करने के बाद पीएम को वापस लौट जाना पड़ा हो.
ये घटना फिरोजपुर जिले के पियारियाना गांव के फ्लाईओवर पर हुई. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दिल्ली से बठिंडा वायु मार्ग से पहुंचे थे. वहां से उन्हें हेलीकॉप्टर के जरिये पहले हुसैनीवाला स्थित राष्ट्रीय शहीद स्मारक जाना था और उसके बाद फिरोजपुर में जन सभा को संबोधित करना था.
लेकिन खराब मौसम के कारण पीएम का हेलीकॉप्टर से हुसैनीवाला जाना संभव नहीं हो पाया. ऐसे में मोदी ने करीब दो घंटे का सड़क का रास्ता तय कर हुसैनीवाला जाना चाहा, ताकि वो उस भूमि पर जाकर शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को श्रद्धांजलि दे सकें, जिनका अंतिम संस्कार यहां 23 मार्च 1931 को किया गया था. शहीदों के स्मारक पर सिर झुकाने के बाद ही पीएम मोदी फिरोजपुर की सभा को संबोधित करना चाहते थे.
लेकिन पंजाब की चन्नी सरकार, स्थानीय प्रशासन और पुलिस की मंशा कुछ और ही थी. कोविड से अपने एक करीबी अधिकारी के ग्रस्त होने का बहाना बनाकर चन्नी बठिंडा नहीं गए, राज्य के मुख्य सचिव और इंचार्ज डीजीपी भी गायब रहे. ये प्रशासनिक और राजनीतिक शिष्टाचार का गंभीर उल्लंघन था. परंपरा है कि जब भी प्रधानमंत्री किसी राज्य के दौरे पर पहुंचते हैं, सीएम, चीफ सेक्रेटरी और डीजीपी उनकी अगवानी करते हैं.
लेकिन यहां आधिकारिक शिष्टाचार निभाना तो दूर, पीएम की सुरक्षा के साथ ही गंभीर खिलवाड़ किया गया. एक तरफ जहां डीजीपी ने सड़क मार्ग से पीएम के काफिले के हुसैनीवाला पहुंचने की व्यवस्था के दुरुस्त होने का आश्वासन एसपीजी को दिया, दूसरी तरफ जब हुसैनीवाला से महज तीस किलोमीटर पहले आंदोलनकारियों के सड़क जाम करने की वजह से काफिला रोके जाने की नौबत आ गई, तो वो संपर्कहीन हो गए. यही हाल चन्नी का रहा, जिनसे संपर्क की सारी कोशिशें फेल रहीं.
बीस मिनट तक फ्लाईओवर पर इंतजार करने के बाद पीएम को वापस बठिंडा लौट जाना पड़ा और वहां से दिल्ली. राज्य सरकार की घनघोर लापरवाही की वजह से मोदी न तो शहीद स्मारक पर जा पाए और न ही अपनी सभा कर पाए. उन्हें अपनी सभा को रद्द करना पड़ा. फिरोजपुर की उस सभा में मौजूद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया को जब मोदी के वहां न पहुंच पाने की घोषणा करनी पड़ी, तो बारिश में भीगकर भी हजारों की तादाद में खड़े बीजेपी समर्थकों के चेहरे पर निराशा फैल गई. खुद मांडविया ने अपनी पीड़ा बयान करते हुए कहा कि आज कांग्रेस ने लोकतंत्र की सारी मर्यादाएं तोड़ दी हैं और ये दिन आपातकाल से भी काला दिन है, जहां 42 हजार करोड़ रुपये की योजनाओं की घोषणा होते देख पंजाब के लोगों के चेहरे पर पर जो उत्साह था, वो सभा रद्द होने के कारण घनघोर मायूसी में बदल गया है.
हैरानी की बात ये रही कि अपनी लापरवाही पर न तो पंजाब के सीएम चन्नी को कोई अफसोस हुआ और न ही उनकी पार्टी कांग्रेस को. इससे उलट पार्टी के कई नेता इस बात पर खुशी जताते नजर आए कि मोदी को वापस दिल्ली लौट आना पड़ा किसानों के कड़े विरोध के कारण. पार्टी की युवा इकाई के अध्यक्ष श्रीनिवास तो मोदी पर तंज करते हुए ट्वीट कर बैठे, मोदी जी, हाउ इज द जोश!
भारत-पाकिस्तान सीमा से महज दस किलोमीटर पहले ये घटना घटी, इसे लेकर पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने चन्नी सरकार को फटकार लगाई. कांग्रेस की पंजाब इकाई के पूर्व अध्यक्ष सुनील जाखड़ ने भी सवाल उठाए, जो चन्नी से वैसे ही नाराज चल रहे हैं. जहां तक बीजेपी का सवाल रहा, उसने साफ तौर पर कहा कि आंदोलन की आड़ में पाकिस्तान, खालिस्तान समर्थकों और कांग्रेस ने मिलकर सुनियोजित तरीके से मोदी पर जानलेवा हमला करने और इसके साथ ही देश में खूनखराबा करने की साजिश रची थी, जिसे पीएम मोदी ने ताड़ते हुए वापस लौट जाना ही उचित समझा, अगर वो आगे बढ़ते तो अनहोनी हो सकती थी.
लेकिन कांग्रेस की केंद्रीय इकाई को मानो कोई फर्क ही नहीं पड़ा. लापरवाही पर अफसोस जताने की जगह उल्टे पार्टी की आधिकारिक लाइन ये रही कि मोदी की सभा में भीड़ नहीं थी, उसलिए उन्होंने सभा रद्द कर दी और ठीकरा राज्य सरकार पर फोड़ने की कोशिश की. पार्टी पूरी तरह चन्नी के समर्थन में नजर आई. खुद चन्नी घटना के कई घंटे बाद जब कैमरे के सामने आए, तो सारा ठीकरा मोदी और एसपीजी पर ही फोड़ दिया, साथ में ये भी जोड़ा कि शांतिपूर्ण किसानों को वो भला कैसे हटा सकते थे. जिस कोविड का बहाना कर चन्नी मोदी का स्वागत करने बठिंडा नहीं पहुंचे थे, वो मीडिया के सामने मास्क हटाकर आराम से सियासी बयान देते रहे.
ध्यान रहे कि चन्नी किसानों के जिस शांतिपूर्ण आंदोलन की बात कर रहे थे, उस घेराव, सड़क जाम और धरने का जिम्मा जिस किसान संगठन, भारतीय किसान संघ क्रांतिकारी ने लिया है, उसके अध्यक्ष सुरजीत फूल को 2009 में यूएपीए की विभिन्न धाराओं के तहत गिरफ्तार किया गया था और पांच महीने तक जेल में रखा गया था. इस किसान संगठन को चरम वामपंथी माना जाता है और इसके कई नेताओं के माओवादियों से संबंध बताए जाते हैं. चन्नी की निगाह में ये संगठन और इससे जुड़े किसान शांति के पुजारी हैं.
फिरोजपुर में कोई बड़ी अनहोनी हो सकती थी, इससे इनकार नहीं किया जा सकता. प्रधानमंत्री की सुरक्षा का ध्यान रखने वाली एजेंसी एसपीजी सिर्फ करीबी सुरक्षा घेरा ही मुहैया कराती है, सड़क से लेकर बाहरी घेरे तक सुरक्षा मुहैया कराने की जिम्मेदारी स्थानीय पुलिस और राज्य प्रशासन की होती है. जाहिर है, पंजाब पुलिस ने अपनी भूमिका का सही ढंग से निर्वाह नहीं किया. उस इंचार्ज डीजीपी सिद्धार्थ चट्टोपाध्याय से उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी, जिसे इसी मंगलवार को यूपीएससी ने राज्य के नियमित डीजीपी के लिए बनाए गये सेलेक्शन पैनल में शामिल होने के लिए उपयुक्त तक नहीं माना और जिसे महज राजनीतिक कारणों से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के दबाव में चन्नी ने राज्य पुलिस की कमान दी. हर बात में ठोको ताली करने वाले सिद्धू भी गायब रहे.
पीएम मोदी की सुरक्षा में ढील का कारण क्या रहा, इसको लेकर तमाम बातें हैं. नेहरू-गांधी परिवार की मोदी से चिढ़ जगजाहिर है. परिवार की पसंद चन्नी ने क्या अपने आलाकमान को खुश करने के लिए इस तरह की कोताही बरती या फिर एक अयोग्य पुलिस प्रमुख ने अपनी भूमिका का ढंग से निर्वाह नहीं किया या फिर राज्य में पीएम अपनी सभा न कर पाएं, इसके लिए सत्तारुढ़ कांग्रेस में सभी स्तर पर विचार- विमर्श कर इस तरह की हरकत की गई. जाहिर है, इसका जवाब इन्हीं के बीच कही छिपा है. खबरें ये भी हैं कि पुलिस ने रास्ता खोलने के लिए कड़ा रास्ता अपनाने की बात की, तो राजनीतिक नेतृत्व ने मना कर दिया, चुनावी फायदे- नुकसान की गणना करते हुए. सबसे बड़ा सवाल ये रहा कि शॉर्ट नोटिस पर सड़क मार्ग से निकले पीएम के रास्ते की जानकारी किसान संगठनों को किसने लीक की और फिर सड़क पर जानबूझकर जमा क्यों होने दिया. स्वाभाविक तौर पर सिस्टम के अंदर से ही किसानों को शह दी जा रही थी.
लेकिन एक बात चन्नी को याद रखनी चाहिए, इतिहास से सबक लेना चाहिए. पिछले दो दशकों में कई बार ऐसा हुआ, जब किसी राज्य के मुख्यमंत्री ने नरेंद्र मोदी के साथ खिलवाड़ करने की कोशिश की, खास तौर पर उनकी सुरक्षा के साथ. लेकिन इससे नुकसान मोदी को नहीं हुआ, बड़ा राजनीतिक खामियाजा उस मुख्यमंत्री या नेता को उठाना पड़ा, जिसने जानते-बूझते मोदी को मुसीबत में डालने की कोशिश की अपने लापरवाह रवैये के साथ. इसके एक नहीं, कई उदाहरण हैं पिछले दो दशक में.
… जब नीतीश कुमार ने तोड़ा 17 साल पुराना गठबंधन
बिहार में लालू-राबड़ी राज के खात्मे के बाद 2005 से बिहार में बीजेपी के साथ मिलकर सरकार चलाते आ रहे नीतीश कुमार ने 16 जून 2013 को 17 साल पुराना गठबंधन तोड़ दिया था, जब नरेंद्र मोदी को बीजेपी ने 2014 लोकसभा चुनावों के लिए अपनी प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाने की घोषणा 9 जून, 2013 को गोवा में की. नीतीश कुमार ने अपनी सरकार से बीजेपी के मंत्रियों को बाहर किया.
इसके चार महीने बाद ही 27 अक्टूबर 2013 को पटना में मोदी की हुंकार रैली आयोजित थी. मोदी तब तक बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के औपचारिक उम्मीदवार भी घोषित हो चुके थे. देश भर में मोदी लहर साफ दिख रही थी. हुंकार रैली के लिए भी पटना के गांधी मैदान में लाखों की तादाद में लोग पहुंचे थे.
गांधी मैदान की वो रैली और सात धमाके
लेकिन मोदी रैली को संबोधित करने के सिलसिले में पटना एयरपोर्ट पहुंचे ही थे कि रैली की जगह गांधी मैदान में एक के बाद एक विस्फोट होने लगे. केंद्रीय खुफिया ब्यूरो ने पहले ही आशंका जाहिर की थी कि मोदी की ये रैली जेहादी आतंकी संगठनों के निशाने पर है. बावजूद इसके बिहार पुलिस ने न तो साजिश रचने वालों को पकड़ने के लिए कोई खास अभियान चलाया और न ही रैली की जगह पर कड़ी चौकसी बरती. इस वजह से आतंकी अपने मंसूबे में कामयाब रहे और गांधी मैदान में जगह- जगह आईईडी प्लांट करने में सफल रहे. एक के बाद एक हुए सात धमाकों में छह लोगों की जान गई, जबकि 89 घायल हुए. नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर गृह विभाग के मंत्री भी थे, जिनके नीचे बिहार पुलिस काम कर रही थी. सवाल पुलिस के साथ नीतीश के रवैये पर भी उठे.
धमाके नहीं बदल सके मोदी के इरादे
उधर मोदी अडिग रहे। गांधी मैदान में लगातार धमाके होने की खबर मोदी को मिलती रही, लेकिन उन्होंने अपने इरादे नहीं बदले. आईबी और अपने सुरक्षाकर्मियों के विरोध की परवाह किये बगैर मोदी रैली को संबोधित करने गांधी मैदान पर पहुंचे, जहां धमाकों के बावजूद खचाखच भरे मैदान में लोग अपने प्रिय नेता को सुनने के लिए बड़े उत्साह से खड़े थे. मोदी ने जोरदार भाषण दिया, बम बारूद की जगह विकास की राजनीति पर बल दिया. नतीजा ये हुआ कि 2014 के लोकसभा चुनावों में बिहार में मोदी पर भरोसा जताते हुए लोगों ने चालीस में से 31 सीटें एनडीए की झोली में डाल दीं, इनमें से 22 सीटें बीजेपी को मिलीं, छह रामविलास पासवान की पार्टी एलजेपी को और तीन उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी के खाते में गईं.
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महज दो सीटों पर सिमट गई जेडीयू
2014 के उन लोकसभा चुनावों में नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू महज दो सीटों पर सिमट गई. परिणाम ये हुआ कि शर्म के मारे नीतीश कुमार को बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी 2014 के लोकसभा चुनावों के तुरंत बाद छोड़नी पड़ी और दलित चेहरे के तौर पर जीतनराम मांझी को सीएम बनाना पड़ा. 2015 में विधानसभा चुनावों में अपमान का घूंट पीते हुए नीतीश को लालू यादव की पार्टी आरजेडी के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ना पड़ा. जिस लालू और उनके परिवार के कुशासन की बात करते हुए खुद नीतीश ने बीजेपी के साथ मिलकर सरकार चलाते हुए सुशासन बाबू का खिताब हासिल किया था.
नीतीश कुमार का नहीं चला आरजेडी से बेमेल गठबंधन
लेकिन ये बेमेल गठबंधन ज्यादा नहीं चला. महज दो वर्ष के अंदर नीतीश कुमार ने तंग होकर आरजेडी का दामन छोड़ दिया और फिर बीजेपी के साथ मिलकर 2017 में बिहार में सरकार बनाई. विधि की विडंबना ये रही कि बीजेपी के साथ मिलकर 2005 से 2013 के बीच बिहार में सरकार चलाते हुए जिस नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी को चुनाव प्रचार के लिए बिहार आने तक नहीं दिया, उसी मोदी की साख के सहारे उन्हें 2020 का विधानसभा चुनाव जीतना पड़ा, एनडीए के सबसे बड़े कैंपेनर के तौर पर मोदी को स्वीकार करते हुए, उनके साथ मंच साझा करते हुए. ये बात अलग रही कि बीजेपी इन चुनावों में बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी, जेडीयू जूनियर पार्टनर के तौर पर.
जो नीतीश कभी थे पीएम पद के मजबूत दावेदार, हाशिए पर आ गए
जिस नीतीश कुमार को एक समय पीएम पद के मजबूत दावेदारों में से एक माना जा रहा था, वो नीतीश कुमार आज राष्ट्रीय राजनीति के हिसाब से हाशिये पर आ चुके हैं. वह खुद कई बार कह चुके हैं कि अब पीएम पद के बारे में सोचना भी उनके लिए ठीक नहीं. मोदी के मामले में अक्टूबर 2013 की एक लापरवाही नीतीश कुमार के लिए कितनी भारी पड़ी, ये सारी दुनिया के सामने है. जहां तक उस घटना का सवाल है, बम विस्फोटों की साजिश रचने और उन्हें अंजाम देने के लिए एनआईए की विशेष अदालत ने पिछले अक्टूबर में ही इंडियन मुजाहिदीन और सिमी से जुड़े नौ आतंकियों को दोषी करार दिया, जिनमें से चार को फांसी की सजा सुनाई गई.
अजीत सिंह को भी महंगी पड़ी मोदी से रारचौधरी चरण सिंह के बेटे और यूपीए सरकार में नागरिक उड्ड्यन मंत्री रहे अजीत सिंह को भी मोदी के साथ अपनी रार काफी महंगी पड़ी. ये किस्सा भी 2014 लोकसभा चुनावों से जुड़ा हुआ है. बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर मोदी लोकसभा चुनावों की तारीखों की घोषणा होने के साथ ही फरवरी- मार्च के महीने में रोजाना आधी दर्जन रैलियां देश के अलग-अलग हिस्सों में कर रहे थे. हर सुबह अहमदाबाद से उड़ान भरते और देर शाम वापस गांधीनगर के अपने आधिकारिक सीएम आवास पहुंचते थे मोदी. उनका एक-एक मिनट महत्वपूर्ण था, आखिर न सिर्फ मोदी प्रधानमंत्री पद के औपचारिक उम्मीदवार थे, बीजेपी और एनडीए के लिए सबसे बड़े कैंपेनर भी थे.
अजीत सिंह को घेरने के लिए सत्यपाल सिंह को उतारा
चुनाव प्रचार के सिलसिले में ही मोदी 29 मार्च 2014 को बागपत पहुंचे थे. वो बागपत जो चौधरी चरण सिंह के जमाने से ही परिवार का गढ़ रहा था और जहां से अजीत सिंह 1989 से लगातार चुनाव जीतते रहे थे, सिर्फ 1998 को छोड़कर,जब सोमपाल शास्त्री ने उन्हें शिकस्त दी थी. उसके बाद से अजीत सिंह लगातार तीन चुनाव फिर से जीत चुके थे. ऐसे में अजीत सिंह को होम टर्फ पर घेरने के लिए बीजेपी ने सत्यपाल सिंह को मैदान में उतारा था, जो एक समय अजीत सिंह के ओएसडी रह चुके थे और चुनावी अखाड़े में कूदने के पहले महाराष्ट्र काडर के वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी के तौर पर मुंबई के पुलिस कमिश्रर.
उन्हीं सत्यपाल सिंह के समर्थन में चुनावी रैली करने पहुंचे मोदी ने अजीत सिंह पर निशाना साधा था और कहा कि जिस कांग्रेस ने चौधरी चरण सिंह को प्रधानमंत्री पद पर टिकने नहीं दिया, उसी कांग्रेस की गोद में बैठकर अजीत सिंह ने अपने पिता का अपमान किया है. यही नहीं मोदी ने ये भी कहा कि चौधरी चरण सिंह तो जमीनी नेता थे, अजीत सिंह हवा हवाई नेता हैं, जिन्हें जनता संसद की जगह इस बार घर भेज देगी.
मोदी को दो घंटे तक नहीं मिली उड़ान भरने की अनुमति
मोदी ने अजीत सिंह पर जो तंज कसा था, वो भी उनके गढ़ में आकर, शायद अजीत सिंह को मोदी की ये बात बहुत बुरी लग गई. संयोग ये भी था कि जिस अजीत सिंह को मोदी ने हवा हवाई नेता करार दिया था, उन अजीत सिंह के पास यूपीए-2 वाली सरकार के आखिरी वर्षों में नागरिक उड्यन मंत्री की ही जिम्मेदारी थी, जब लोकसभा के चुनाव हो रहे थे. शायद इसी खुन्नस में अजीत सिंह ने अपने मातहत अधिकारियों को इशारा कर दिया और बागपत रैली के दो दिन बाद ही जब एक अप्रैल 2014 को मोदी दिल्ली से बरेली के लिए उड़ान भरने की तैयारी कर रहे थे, डीजीसीए और एटीसी ने मिलकर मोदी को दो घंटे तक उड़ान भरने की अनुमति ही नहीं दी. बहाना ये बनाया गया कि एयरफोर्स के नियंत्रण में बरेली का हवाई अड्डा होने के कारण एयर डिफेंस क्लियरेंस आने में काफी देरी हुई.
इसकी वजह से मोदी को बरेली की सभा में पहुंचने में दो घंटे से भी ज्यादा की देरी हो गई, जहां लोग सुबह से ही मोदी का इंतजार कर रहे थे, खुद मोदी समय से सभा में पहुंचने के लिए सुबह साढ़े नौ बजे ही दिल्ली एयरपोर्ट पर पहुंच चुके थे, लेकिन झक मारकर उन्हें विमान में ही बैठना पड़ा था, टेकऑफ के लिए क्यिलरेंस का लंबा इंतजार करते हुए.
… फिर रीवा जाने की नहीं मिली क्यिलरेंस
लेकिन मोदी की मुसीबत उस दिन और भी बढ़ने वाली थी. बरेली की सभा फटाफट खत्म कर मोदी जब हेलीकॉप्टर में सवार हुए रीवा जाने के लिए, तो हेलीकॉप्टर को भी उड़ान भरने की अनुमति नहीं मिली. करीब घंटे भर तक मोदी गर्मी के महीने में पसीने से लथपथ हेलीकॉप्टर में बैठे रहे, उनके सुरक्षाकर्मी परेशान रहे और समर्थक व स्थानीय नेता अवाक कि आखिर ये हो क्या रहा है. करीब एक घंटे तक हैलीपैड पर हेलीकॉप्टर में बैठे रहने के बाद मोदी को उड़ान भरने की अनुमति मिली.
इसकी वजह से तीन घंटे से भी अधिक की देरी के साथ रीवा पहुंचने वाले मोदी ने अपनी पीड़ा लोगों के सामने बयान की. उनसे देरी के लिए माफी मांगते हुए कहा कि यूपीए सरकार और उसके मंत्री उड़ान में देरी कर सकते हैं, रोक सकते हैं, लेकिन जनता ने यूपीए सरकार को भगाने का फैसला कर लिया है, वो बदल नहीं सकता.
पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं की उड़ानों में भी की जा रही थी देर
ये महज इत्तफाक था या फिर सोची- समझी साजिश कि जिन दिनों मोदी के साथ ये सब हो रहा था, उसी वक्त उनकी पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं की उड़ानों में भी देरी की जा रही थी. चाहे तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह की उड़ान रही हो या फिर छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्यमंत्री रमण सिंह के हेलीकॉप्टर को टेकऑफ की इजाजत देने में भारी देरी. खुद मोदी को इसका अहसास दो महीने पहले भी हो चुका था, जब फरवरी में कोलकाता के ब्रिगेड ग्राउंड में होने वाली रैली के लिए पार्टी नेताओं ने ट्रैफिक को देखते हुए मोदी को हेलीकॉप्टर के जरिये नजदीकी रेस कोर्स ग्राउंड हैलीपैड पर हेलीकॉप्टर के जरिये लाने की योजना बनाई थी, लेकिन आखिरी समय में इसकी इजाजत नहीं दी गई.
मोदी और उनके साथी नेताओं के साथ जब ये सब हो रहा था, पार्टी आधिकारिक तौर पर चुनाव आयोग का भी दरवाजा खटखटा चुकी थी कि जानबूझकर उनके बड़े नेताओं की उड़ानों में देरी की जा रही है या फिर लैंडिंग की अनुमति नहीं दी जा रही है. जाहिर है, उस वक्त नागरिक उड्डयन मंत्री अजीत सिंह थे, शंका की सुई उन्हीं पर ज्यादा थी कि अपनी निजी खुन्नस या फिर कांग्रेस के इशारे पर वो ये सब कुछ कर रहे हैं.
अजीत सिंह ने मोदी से पंगा लेने की चुकाई बड़ी सियासी कीमत
ये सारा कुछ करने के बावजूद जब चुनाव परिणाम आए, तो अजीत सिंह और उनकी पार्टी को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा. अजीत सिंह को सत्यपाल सिंह ने पटखनी दे दी, जिन्हें राजनीति में आए जुम्मा-जुम्मा चार दिन भी नहीं हुए थे. यही हाल मथुरा में भी रहा, जहां अजीत सिंह के बेटे जयंत चौधरी को ड्रीम गर्ल हेमा मालिनी ने बड़ी आसानी से हरा दिया. अजीत सिंह की पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल के बाकी उम्मीदवारों को भी करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा. जया प्रदा तक बिजनौर से चुनाव हार गईं, उनके मेंटर अमर सिंह को आरएलडी का टिकट नहीं भाया और वो फतेहपुर सीकरी से चुनाव हार गए. मोदी लहर ने सपा से लेकर आरएलडी तक का काम तमाम कर दिया. जाहिर है, अजीत सिंह को मोदी से पंगा लेने की बड़ी सियासी कीमत चुकानी पड़ी, जो जाटलैंड उनका गढ़ हुआ करता था, आज वहां बीजेपी सबसे मजबूत स्थिति में खड़ी है और अजीत सिंह के निधन के बाद बेटे जयंत चौधरी अपनी सियासी जमीन तलाशने की फिर से कोशिश कर रहे हैं.
चंद्रबाबू नायडू के साथ भी हुआ हुआ कुछ ऐसा
अजीत सिंह जैसा ही कुछ चंद्रबाबू नायडू के साथ भी रहा. एक समय आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर कॉरपोरेट इंडिया के डार्लिंग रहे और निवेश और विकास के मामले में अपनी मजबूत छाप जमा लेने वाले चंद्रबाबू नायडू एनडीए के महत्वपूर्ण नेताओं में से थे. खुद एक समय देश का पीएम बनने का भी सपना देखते थे. 2018 आते-आते वो भी एनडीए छोड़कर मोदी के कट्टर सियासी दुश्मन बन गये. देश भर में घूम घूम कर मोदी के खिलाफ गोलबंदी करते रहे. वहां तक तो बात ठीक थी, लेकिन मोदी के साथ अपनी रार को वो निजी दुश्मनी तक ले गये.
मोदी की जनवरी 2019 की छह तारीख को गुंटूर में रैली होने वाली थी, उससे पहले चंद्रबाबू नायडू और उनकी पार्टी टीडीपी ने मोदी के खिलाफ सियासत की सारी हदें पार कर दीं. ‘मोदी गो बैक’ के नारे के साथ पार्टी के कार्यकर्ता सड़कों पर आ गये और माहौल ऐसा बनाया गया कि अगर मोदी सभा के लिए आ गये तो उनके खिलाफ हिंसक प्रदर्शन होगा. टकराव को टालने के लिए मोदी को अपना गुंटूर दौरा स्थगित करना पड़ा. आखिरकार फरवरी की दस तारीख को मोदी गुंटूर में रैली कर पाए. लेकिन नायडू का मोदी पर निजी हमला और विष वमन जारी रहा.
आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं नायडू
इसका परिणाम आखिरकर क्या हुआ, सबने देखा. एक समय आंध्र की राजनीति में सबसे बड़ा चेहरा रहे नायडू आज अपने अस्तित्व की थकी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं. 2014 में राज्य के पुनर्गठन के बाद जहां तेलंगाना में केसीआर बड़ी ताकत बन चुके हैं, तो आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड़्डी. इन दोनों ही जगहों में बीजेपी तेजी से अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने में लगी है, उधऱ नायडू का कही कोई ठिकाना नहीं. विधि की विडंबना ये रही कि मोदी और अमित शाह के खिलाफ 2018- 2019 लोकसभा- विधानसभा चुनावों के दौरान जहर उगलने वाले नायडू को सामने से चलकर इन दोनों नेताओं को नवंबर 2019 में धन्यवाद देना पड़ा, जब आंध्र के नक्शे में केंद्र सरकार ने अमरावती को प्रदेश की राजधानी के तौर पर जगह दी, जो नायडू का सपना रहा है और जिसे जगन ठंडे बस्ते में डालने में लगे थे.
पी चिदंबरम को भी उठाना पड़ा नुकसान
ऐसे किस्से कई हैं. जिसने भी निजी दुश्मनी पालकर मोदी का नुकसान करने की कोशिश की, उसे घाटा ही हुआ, खास तौर पर जिसने भी मोदी की सुरक्षा या फिर जीवन के साथ खिलवाड़ किया. एक समय देश के गृह मंत्री रहे पी चिदंबरम को भी इसका अहसास होगा, जो मोदी को अदालती पचड़ों में फंसाने में लगे रहे थे या फिर सुरक्षा घेरा कम करने की कोशिश की. लेकिन चिदंबरम के लिए भी ये नुकसान का सौदा ही रहा. 2014 का लोकसभा चुनाव लड़ पाने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाए वो, बेटे को अपनी सीट शिवगंगा से आगे किया, पूरी ताकत से वहां प्रचार किया, फिर भी बेटे कार्ति को हार का सामना करना पड़ा, चौथे नंबर से संतोष करना पड़ा. जिस शिवगंगा सीट से खुद चिदंबरम 1984 से सात बार लोकसभा चुनाव जीते थे.
चन्नी को इन सब किस्सों और घटनाओं से सीख लेनी चाहिए और उनकी पार्टी कांग्रेस को भी, जिसे मोदी ने उसके सवा सौ साल लंबे इतिहास में सबसे बुरे दौर में पहुंचा दिया है. मोदी से लड़ाई के लिए जमीन पर उतरना होगा, तनतोड़ मेहनत करनी होगी, जनता का विश्वास जीतना होगा न कि साजिशों से काम चलेगा. इतिहास गवाह है कि मोदी के मामले में जिसने भी ऐसा किया, उसने अपना भारी सियासी नुकसान ही किया. चन्नी को इतिहास से ये सबक सीखना होगा. जहां तक मोदी का सवाल है, उनका तो यही कहना है कि जब तक उन पर माता रानी की कृपा है या फिर भगवान भोले शंकर साथ हैं, कोई बाल बांका भी नहीं कर सकता. आखिर शक्ति और शिव दोनों के घनघोर उपासक जो ठहरे मोदी.