स्वतंत्रता दिवस पर मुंबई के राजा शिवाजी विद्यालय में ध्वजारोहण के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने कहा कि भारतीय अर्थव्यवस्था विकेंद्रित और आत्मनिर्भर बननी चाहिए। संघ प्रमुख ने कहा कि आत्मनिर्भरता ही पूर्ण स्वतंत्रता की बुनियाद है। इसके लिए उन्होंने सामूहिक प्रयासों पर बल देने का आह्वान किया।
संघ प्रमुख ने कहा- विकास के लिए आर्थिक मजबूती जरूरी
संघ प्रमुख भागवत ने विकेंद्रित एवं आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था पर बल देते हुए कहा कि विदेशों में व्यक्ति इकाई होता है। वहीं भारत में परिवार सामाजिक एवं आर्थिक इकाई कहलाता है। भारत में छोटे और कुटीर उद्योगों के आधार पर बड़े उद्योगों का संचालन होना चाहिए। हमारी व्यवस्था धन नहीं बल्कि व्यक्ति केंद्रित होनी चाहिए।
उन्होंने कहा कि देश स्वाधीन हो गया, लेकिन पूरी तरह आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है। देश के संपूर्ण विकास के लिए आर्थिक सक्षमता बेहद जरूरी है। आर्थिक सुरक्षा पर ही अन्य सुरक्षाएं निर्भर हैं। नतीजतन देश को आर्थिक रूप से सक्षम होने की जरूरत है।
संघ प्रमुख ने कहा कि हम चीन के बहिष्कार की कितनी ही बातें करें, लेकिन वास्तविकता यह है कि हमारा इंटरनेट, टेक्नोलॉजी और मोबाइल से जुडा सबकुछ वहीं से आता है। यदि हम इन चीजों के लिए चीन पर निर्भर हैं तो हमें उसके आगे झुकना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि यदि इस तरह से झुकना नहीं चाहते तो भारत को आत्मनिर्भर बनना पड़ेगा।
संघ प्रमुख ने कहा कि संसार में व्यक्ति सुख की प्राप्ति के लिए जीता है। सुख से मनुष्य को आनंद की प्राप्त होती है। नतीजतन मनुष्यों के अधिकांश क्रियाकलाप सुख की प्राप्ति के लिए होते हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय मनीषियों ने सुख को भौतिक नहीं बल्कि आंतरिक भावना करार दिया। सुख, संतोष पर निर्भर होता है और सुख बांटने से संतोष की प्राप्ति होती है। सभी के सुख की कामना करने पर ही हम खुद सुखी हो पाते हैं।
सुख की परिभाषा को धर्म और अर्थ से जोड़ते हुए संघ प्रमुख ने कहा कि बतौर चाणक्य सुख का मूल धर्म, धर्म का मूल अर्थ और अर्थ का मूल इंद्रीय जय है। हमारे यहां कमाने से अधिक बांटना महत्वपूर्ण है। हमारी सभ्यता में धर्म के अनुशासन में अर्थ चलता है। इसके चलते हमारी आर्थिक व्यवस्था में शोषण नहीं, बल्कि आवश्यक आवश्यकता की पूर्ति के लिए दोहन होता है। उन्होंने कहा कि उत्पादन खर्च पर आधारित लाभ हमारी संकल्पना है। इस लाभ से निर्मित संपत्ति का न्यायपूर्ण वितरण हमारी संकल्पना में निहित होता है। व्यवसाय में पूंजी, श्रम, संसाधन, ग्राहक और राज्य सभी की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
स्वदेशी का मतलब दुनिया को ठुकराना नहीं होता
स्वदेशी पर विस्तार से रोशनी डालते हुए डॉ. भागवत ने कहा कि स्वदेशी का मतलब दुनिया को ठुकराना नहीं होता। समय-समय पर हमें दुनिया से लेन-देन करना ही पड़ता है, लेकिन हम दुनिया से खरीदते समय अपनी शर्तों पर खरीद सकें, हमारी स्थिति ऐसी होनी चाहिए। उसके लिए आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था होनी चाहिए, लेकिन आज हम ऐसी स्थिति में नहीं हैं।
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संघ प्रमुख ने कहा कि दुनिया में पूंजीवाद और कम्युनिज्म ऐसे दो ही रास्ते हैं, लेकिन भारत में अर्थव्यवस्था से जुड़ा तीसरा विकल्प मौजूद है। हमारा आर्थिक विचार हजारों वर्षों की कसौटी पर खरा उतरा है। नतीजतन इसमें अधूरापन नहीं बल्कि पूर्णता है। मौजूदा समय के बदलावों के साथ तालमेल बनाते हुए भारत को प्राचीन आर्थिक विचार को स्वीकारना होगा। व्यक्ति, परिवार के साथ-साथ समाज की आर्थिक उन्नति सर्वांगीण समृद्धि कहलाती है। उन्होंने कहा कि नियमों में बदलाव, आपसी सहयोग और काल सुसंगत परिवर्तन के मार्ग पर चलकर हम आर्थिक सक्षम बन सकते हैं। तभी हम पूर्णरूप से स्वतंत्र कहलाएंगे।