स्कूलों में हिजाब (Hijab Ban) पर प्रतिबंध को बरकरार रखने के लिए न्यायपालिका (Judiciary) को धमकी देकर जो दबाव बनाया जा रहा है, उसकी कड़ी निंदा की जानी चाहिए. बेशक ऐसी घटनाएं इस समुदाय को सहिष्णु और हिंसक दिखा कर इसकी छवि को और नुकसान पहुंचाती हैं. इस तरह की धमकी देने वालों को तुरंत न्याय के कटघरे में लाया जाना चाहिए. साथ ही समुदाय (Muslim Community) को अपने भीतर झांकने और खुद से पूछने की जरूरत है कि ये उस स्तर पर कैसे पहुंचा जहां कपड़ों का एक टुकड़ा कट्टरपंथियों के लिए करो या मरो की लड़ाई में बदल गया है. दुनिया भर में मुसलमानों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है, चाहे वो राजनीतिक हों, सामाजिक या सांस्कृतिक – उनका एक ऐतिहासिक दृष्टिकोण है. करीब 200 साल पहले इस धर्म की स्थापना के बाद इज्तिहाद (इस्लामी ग्रंथों की यथोचित व्याख्या करने का अधिकार) के लिए गूढ़ मुद्दों को हल करने के रास्ते इस धर्म के प्रमुख सुन्नी संप्रदाय द्वारा बंद कर दिए गए थे. तब उलेमा ने घोषणा की थी कि ‘इज्तिहाद’ के दरवाजे बंद कर दिए गए हैं और लोगों को मौलवियों के फतवे के अनुसार चलना होगा जो अभी तक पुराने घिसे-पिटे ढर्रे पर ही चल रहे हैं.
दारुल-उलूम देवबंद और अन्य धार्मिक संस्थानों के विवादास्पद फतवे (लेखादेश) इस ‘स्थिर सोच’ का परिणाम हैं जो बदलती स्थिति के साथ विकसित होने में विफल रहे. मुस्लिम समुदायों में महिलाएं सबसे खराब प्रकार के भेदभाव से पीड़ित हैं, और ‘फतवा-ए-उलेमा दार अल उलुम देवबंद’ इनके खिलाफ आदेशों से भरा हुआ है. न केवल समकालीन वास्तविकता में निहित प्रश्नों पर, बल्कि कल्पित, काल्पनिक परिदृश्यों पर भी, देवबंद के विद्वान फतवा जारी करने में देर नहीं करते.
भारतीय सुन्नी मुसलमान बरेलवी और देवबंद से प्रभावित
शारीरिक संबंधों पर जारी हुए फतवे तो और चौंका देने वाले हैं. मौलाना अहमद रज़ा खान बरेलवी के ‘फ़तवा-ए-रिज़विया’ को इसी वजह से ‘विस्फोटकों का पैकेट’ करार दिया गया है. चूंकि 90 प्रतिशत से अधिक भारतीय मुस्लिम आबादी सुन्नी संप्रदाय (धार्मिक रूप से बरेलवी और देवबंदी से प्रेरित) से संबंधित है, इसलिए इन फतवों ने उनको पूरी तरह प्रभावित किया है.
अब्दुलहलीम अबू शुक्का ने 1995 में प्रकाशित अपनी छह-खंड वाली अरबी पुस्तक ‘द लिबरेशन ऑफ वीमेन इन द एज ऑफ रिवीलेशन'(Taḥrīr al-Mar’a fī ‘Aṣr al-Risāla) में कुरान और प्रामाणिक हदीस (hadiths) यानी परंपराओं का जिक्र करते हुए इस्लाम में महिलाओं की स्वायत्तता, सामुदायिक पूजा में भाग लेने, सार्वजनिक जीवन जीने, राजनीति, पेशेवर क्षेत्रों और यहां तक कि युद्ध के मैदानों में भागीदारी के बारे में बताया है. उन्होंने अपनी किताब में बताया है कि इस्लाम कैसे अरब समाज में महिलाओं के उत्थान का एक जरिया बना जो प्री-रीविलेशन युग में महिला विरोधी होने के लिए जाना जाता था.
शुक्का ने अपनी किताब में लिखा है – एज ऑफ रीविलेशन के दौरान महिलाएं पर्दे के पीछे नहीं रहती थीं. पर्दे का रिवाज इस्लाम के दौर से पहले का है. यद्यपि इस्लाम एक विचारधारा है, लेकिन इस्लामी समुदाय विश्व स्तर पर स्थानीय संस्कृति और परंपराओं के माध्यम से विकसित हुआ है, जिसे वह मूल विश्वास के रूप में मानता आया है. असल में यह एक भ्रांति है.
ऐसा नहीं है कि मुसलमान आत्मनिरीक्षण नहीं करते. लेकिन समुदाय पर मौलवियों की पकड़ के कारण यह प्रक्रिया धीमी है. अपने निहित स्वार्थों की रक्षा के लिए कुरान और हदीस (Hadith) की शरण लेना मुल्लाओं के लिए एक आसान तरीका बन गया है और अब हिजाब भी एक ऐसा ही मुद्दा बन गया है. ऐसे समय में जब राजनीतिक कारणों से समुदाय अस्तित्व के संकट से गुजर रहा है, हिजाब जैसे गैर-मुद्दे के जाल में पड़ना सबसे बड़ी नासमझी कही जा सकती है.
हिजाब से ज्यादा, जिसका मुस्लिम लड़कियां विनम्रता से पालन कर सकती हैं, उनके सामने कहीं अधिक बड़े मुद्दे हैं जिन पर दबाव बनाना जरूरी भी है. उदाहरण के तौर पर मुस्लिम बालिका शिक्षा, रोजगार और सामाजिक-आर्थिक विकास जैसे मुद्दे खूब उठाए जाने चाहिए.
ऐसा तो नहीं है कि अगर मुस्लिम लड़कियां स्कूल में हिजाब नहीं पहनेंगी तो वे अपने धर्म से विमुख हो जाएंगी. मुस्लिम लड़कियों को, बाकी लड़कियों की तरह, अपनी इच्छानुसार कपड़े पहनने का पूर्ण संवैधानिक अधिकार है, लेकिन अगर शैक्षिक संस्थान में कोई ड्रेस कोड है तो उसका पालन भी किया जाना चाहिए.
हिजाब विवाद में फंसने का बड़ा खतरा यह है कि इससे मुस्लिम लड़कियां शिक्षा और खासतौर पर आधुनिक विज्ञान आधारित शिक्षा से वंचित रह सकती हैं. भारत के कई राज्यों में, लाखों मुस्लिम लड़कियां अपने परिवारों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने और पुरानी बेड़ियों को तोड़कर आजाद होने के लिए शिक्षा पा रही हैं. वहीं इस्लाम में शिक्षा को निचले पायदान पर रखा गया है.
कुरान की पहली आयत इस शब्द से शुरू हुई:
पढ़ो. अपने ईष्ट के नाम पर पढ़ो जिसने सब बनाया, [उसने] खून के थक्के से इंसान बनाया. अपने रब के नाम से पढ़ो जिसने कलम से शिक्षा दी: [उसने] मनुष्य को वह सिखाया जो वह नहीं जानता था (96: 1-5).
और पैगंबर के तो ये प्रसिद्ध शब्द थे ही: ज्ञान की तलाश करो, भले ही उसको पाने के लिए चीन तक की दूरी क्यों न तय करनी पड़े. इस्लामी ग्रंथों में भी उनके बारे में यही बताया है कि वो ज्ञान की तलाश करना हर मुसलमान का कर्तव्य मानते थे. उन्होंने यह भी कहा था कि बुद्धि आस्तिक की खोई हुई संपत्ति है, उसे इसे लेना चाहिए, भले ही वह मुशरिक (मूर्तिपूजक) के मुंह में मिल जाए.
शिक्षा की सर्वोच्चता को रेखांकित करते यह कुरान के आदेश हैं जिनको कर्नाटक उच्च न्यायालय के हिजाब निर्देश का विरोध करने वाले पूरी तरह नजरअंदाज कर रहे हैं. अगर मुस्लिम समुदाय हिजाब विवाद में फंसता है, तो इसका खामियाजा मुस्लिम लड़कियों को ही भुगतना पड़ेगा. यदि वे मौलवियों के आदेश के अनुसार हिजाब नहीं पहनती हैं, तो उनके परिवार उन्हें नए युग के ज्ञान वाली शिक्षा प्राप्त करने की अनुमति नहीं देंगे, और यहां तक कि उन्हें मदरसा भी ले जा सकते हैं जहां वे किसी यहूदी बस्ती जैसे माहौल में रहेंगी. और अगर वे हिजाब पहनती हैं, तो शिक्षण संस्थान उन्हें अपने परिसर में प्रवेश नहीं करने देंगे. हिजाब के विवाद की इस सौदेबाजी में कई हजारों लड़कियों को स्कूल तक छोड़ना पड़ सकता है जिससे वे शिक्षा के अपने मौलिक अधिकार से वंचित रह जाएंगी.
धर्म से इतर, दक्षिणपंथियों ने लड़कियों की शिक्षा को एक अभिशाप के तौर पर ही देखा है. ‘चादर और चार दीवारी’ – इस उपमहाद्वीप की पिछड़ी सोच दिखाने वाली अवधारणा है जो हर धर्म और जाति में अपनी पैठ बना चुकी है, और जिससे महिलाओं को एक संपत्ति के रूप में देखा जाता है या उनको ऐसी वस्तु माना जाता है जिसको काबू में रखा जाए या फिर उस पर स्वामित्व व प्रभुत्व जमाया जा सके. हिंदू समुदाय में, हरियाणवी खाप ने भी कुछ ऐसे फतवे जारी किए जिससे लड़कियों के शिक्षा के अधिकार का हनन हो रहा था या उनके पहनावे व मोबाइल फोन के प्रयोग पर पाबंदी लगाई गई.
एक रिपोर्ट में बताया गया है कि सबसे अधिक शिक्षित समुदाय माने जाने वाली यहूदी कम्यूनिटी में भी अति-रूढ़िवादी सतमार संप्रदाय (Satmar sect) युवतियों को पढ़ाई की इजाजत नहीं देता है. इसलिए मुसलमानों के लिए इस विवाद से आगे बढ़ने का समय आ गया है. उन्हें हर दक्षिणपंथी उकसावे पर आक्रोश में आना छोड़कर अपनी लड़कियों को शिक्षित करने पर ध्यान केंद्रित करना होगा. तभी वे अपने समुदाय को संभावनाओं और अवसरों से भरी दुनिया में आगे ले जाने की जिम्मेदारी साझा कर सकेंगी. इसके लिए अगर हिजाब पहनने को न मिले तो भी कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए.
वैसे इन दिनों अरब जगत में ही बदलाव की तेज हवाएं चल रही हैं. लेकिन जो लोग दुनिया के इस क्षेत्र से धार्मिक प्रेरणा लेते हैं, वे ही इसे इस डर से अनदेखा कर रहे हैं कि कहीं समुदाय पर उनकी कमान ढीली न हो जाए.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)