पंजाब (Punjab) के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री भगवंत मान (Bhagwant Mann) ने सरकार में बैठने के साथ ही सबसे पहले भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ मुहिम चलाने का ना केवल ऐलान किया बल्कि उसे सीधा जनता से जोड़ दिया. मुख्यमंत्री ने कहा कि जनता भ्रष्टाचार (Corruption) से जुड़े मामलों की शिकायत सीधे उन्हें करे, यह जनता का उनमें विश्वास पैदा करने का गैर पारंपरिक तरीका है. मुख्यमंत्री ने अपने घोषणा पत्र के बड़े वायदों मुफ्त बिजली और हर महिला को एक हज़ार रुपए हर महीने देने की तुरंत घोषणा करके यह जताने की कोशिश की है कि अब यह नहीं कहा जा सकता कि ‘वादे हैं वादों का क्या’, यानी एक नए तरह की राजनीति की शुरुआत.
आम आदमी पार्टी ने पंजाब में अपनी सरकार बना कर यह भी पक्का कर दिया कि लोगों को उनके ‘दिल्ली मॉडल’ पर भरोसा है और वो भरोसे की राजनीति करते हैं. आम आदमी पार्टी के इस मॉडल को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ‘गुजरात मॉडल’ का ‘एक्सटेंशन’ भी कह सकते हैं. मोदी गांधीनगर से जब दिल्ली पहुंचे तो उनके साथ था उनकी सरकार का ‘गुजरात मॉडल.’ गुजरात मॉडल, जिसका नया नारा बना- “अच्छे दिन आने वाले हैं” और लोगों ने 2014 के चुनाव में उन्हें भारी बहुमत से जिता दिया, बीजेपी की पहली स्पष्ट बहुमत वाली सरकार. क्या इसका मायने यह है कि लोग राजनीतिक दलों और नेताओ के वायदों और बयानों पर भरोसा करते हैं.
पंजाब की जनता ने भगवंत मान के नाम पर झोली भरकर वोट दिए
इसका जवाब शायद नहीं में हो, यह विश्वास वादों और बयानों में नहीं है. यह नतीजा है राजनेता की विश्वसनीयता का मतलब जनता को अगर नेता में विश्वास हो तो वो उसकी बात पर भरोसा करने का खतरा मोल लेने में नहीं हिचकिचाती. मोदी के गुजरात के विकास मॉडल में वोटर ने भरोसा जताया कि मोदी के दिल्ली पहुंचने पर देश में भी विकास होगा और इसी बात ने केजरीवाल की मदद की पंजाब में सरकार बनाने में. आम आदमी पार्टी देश की अकेली क्षेत्रीय पार्टी बन गई जिसकी एक साथ दो-दो राज्यों में सरकार बन गई है. आम आदमी पार्टी की यह जीत उस वक्त हुई है जब राष्ट्रीय दलों का जनाधार लगातार सिकुड़ता जा रहा है और वो राष्ट्रीय से राज्य स्तरीय राजनीतिक दल के पायदान पर फिसलते दिखने लगे हैं.
आम आदमी पार्टी ने पारंपरिक राजनीतिक दलों कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल का सफाया कर दिया. पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने औपचारिक तौर पर जनता की पसंद से चुने गए भगवंत मान को मुख्यमंत्री पद का ना केवल चुनाव से पहले उम्मीदवार घोषित किया, बल्कि चुनावी नतीजों ने उनके फ़ैसले पर मुहर भी लगा दी. पंजाब की जनता ने भगवंत मान के नाम पर झोली भरकर वोट दिए. यह जीत भगवंत मान की भी उतनी ही हैजितनी अरविंद केजरीवाल की. पहले स्तर पर लोगों ने केजरीवाल के ‘दिल्ली मॉडल’ को पसंद का और दूसरे स्तर पर उन्हें भगवंत मान में एक नया राजनीतिक नेतृत्व दिखा. पारपंरिक नेतृत्व से अलग.
एक कामेडियन में गंभीर राजनीति करने वाला शख्स. आमतौर पर सरकारों के शपथग्रहण समारोहों में बड़े बड़े राजनेताओं और सेलेब्रिटीज को आमंत्रित किया जाता है, लेकिन भगवंत मान ने पंजाब की जनता को न्यौता दिया और कहा कि इस सरकार में पंजाब की “तीन करोड़ जनता का हर शख्स मुख्यमंत्री” है, तीन करोड़ पंजाबियों की सरकार, याद कीजिए “छह करोड़ गुजरातियों का सम्मान.” फिर समारोह किया शहीदे आजम भगत सिंह के गांव में, राष्ट्रवाद के तड़के से साथ- “इंकलाब जिंदाबाद”. राजनीति यूं तो ‘परसेप्शन’ और ‘ऑप्टिक्स’ का खेल माना जाता है, लेकिन यह खेल इतना आसान भी नहीं ‘परसेप्शन’ और ‘ऑप्टिक्स’ को जनता स्वीकार करे, यह सबसे कठिन काम है.
कांग्रेस का तो कोई नामलेवा ही नहीं रहा
आम आदमी पार्टी ने जब दिल्ली में राजनीति की शुरुआत की थी तब भी भ्रष्टाचार के ख़िलाफ आंदोलन से की थी. अन्ना आंदोलन ने उसे देश भर में लोकप्रिय बना दिया. दिल्ली की राजनीति में तब उन्होंने दोनों पारपंरिक दलों बीजेपी और कांग्रेस को साफ कर दिया, पूरी तरह तहस नहस. यह जीत सिर्फ़ हवा हवाई नहीं थी, क्यों लगातार दूसरी बार भी वो मजबूत होकर सामने आई. केन्द्र में दो दो बार स्पष्ट बहुमत बनाने से सरकार और दिल्ली में सातों सांसद होने के बावजूद बीजेपी विधानसभा में विपक्ष में बैठने लायक नहीं रही. कांग्रेस का तो कोई नामलेवा ही नहीं रहा.
भगवंत मान की जीत भी उन लोगों के उस सवाल का जवाब है जो चुनावों में बड़े-बड़े दिग्गज नेताओं के सामने टीना फैक्टर यानी कोई विकल्प नहीं की बात करते हैं. इस चुनाव में आम आदमी पार्टी की आंधी में कांग्रेस के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी, प्रदेश अध्यक्ष नवज्योत सिंह सिद्धू , कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और शिरोमणी अकाली दल के नेता प्रकाश सिंह बादल जैसे दिग्गज धराशायी हो गए. कुल मिला कर दस साल के राजनीतिक अनुभव वाले भगवंत मान और आम आदमी पार्टी दोनों का ही परचम फहरा गया. यह जीत उन लोगों के लिए सबक हो सकती है जो चुनावों को विज्ञापनों, पैसा, भाषणों, रैलों और नेताओं के भरोसे जीतने का ख्याल रखते हैं.
उन लोगों को भी समझ आया होगा जो सिर्फ़ नेताओं के दम पर राजनीति करना जानते है, लोकतंत्र में सिर्फ़ जनता ही ‘किंग’ है और सिर्फ वोट की भाषा में बोलती है. जब उसका मौका आता है वो आपके हर काम का जवाब देती है, हिसाब करती है. पंजाब में हारने के बाद कांग्रेस अब सिर्फ़ दो राज्यों राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सरकार के साथ सिमट गई है. राज्यों में विधायकों की संख्या में कमी आई है यानी अगले महीने से होने वाले राज्यसभा सीटों के चुनावों में भी उसका खासा नुकसान होगा और उसके कई बड़े नेता सदन से बाहर हो जाएंगे, जबकि एक ही चुनाव से आम आदमी पार्टी राज्यसभा में भी अपनी उपस्थिति ज़्यादा मजबूत तरीके से रख पाएगी. साल 2014 के चुनाव में पंजाब में आप के चार सांसद जीते, लेकिन 2019 में यह आंकड़ा सिर्फ एक पर अटक गया और इकलौते सांसद बने भगवंत मान. यानी विधानसभा चुनावों से पहले ही जनता ने अपना विश्वास भगवंत मान में जाहिर कर दिया था.
बड़ी गारंटी है ईमानदार कोशिश और विश्वसनीयता
पंजाब में आप की जीत का एक बड़ा कारण यह भी रहा कि साल 2017 में हारने के बाद आम आदमी पार्टी ने मैदान नहीं छोड़ा और ना ही निराश हुए बल्कि ज़्यादा ताकत और मेहनत से वो जुट गए. नतीजा सामने है जबकि कांग्रेस पंजाब में अपने अंदरूनी झगड़ों में उलझी रही. कांग्रेस ने पहले साढ़े चार साल मुख्यमंत्री रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह के कामकाज पर फेल होने को खुद ही स्वीकार कर लिया. फिर चरण जीत सिंह चन्नी के छोटे से कार्यकाल में विश्वास नहीं दे पाई और ना ही अगले पांच साल के लिए उम्मीदें. शिरोमणि अकाली दल का नेतृत्व अपने पारंपरिक वोट और पंथिक राजनीति के भरोसे बैठा रहा जबकि बीजेपी अमरिंदर के ट्रैक्टर पर खेती करना चाहती थी, जिसमें नाकामी मिली.
चुनावों में जीत और हार कोई नयी चीज नहीं है. महत्वपूर्ण है उसका विश्लेषण और उससे सबक लेकर आगे बढ़ना. आज देश में पश्चिम बंगाल से लेकर ओड़िशा तक और असम, दिल्ली जैसे कई राज्यों में राज्य सरकारें लगातार चुन कर आ रही हैं और ज़्यादातर राज्यों में ये गैर बीजेपी, गैर कांग्रेसी सरकारें हैं. साफ है कि देश में राष्ट्रीय पार्टी का तमगा या बड़ा राजनीतिक चेहरा या खानदानी नेता होना जीत की गारंटी नहीं है. बड़ी गारंटी है ईमानदार कोशिश और विश्वसनीयता. जनता आपकी गल्तियों को माफ करने के लिए भी तैयार होती है बशर्ते आप उसे स्वीकार कर लें.
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पंजाब का चुनाव यह भरोसा जगाने के लिए भी काफी है कि आप धर्म, जाति और साम्प्रदायिकता के बिना भी चुनाव जीत सकते हैं. चुनाव जीतने के लिए बहुत पैसा या बहुत बड़ा नाम होने की ज़रूरत भी नहीं है. हो सकता है राजनेता इसे राजनीतिक संदेश के तौर पर नहीं देखते हों, क्योंकि चाणक्य के लिए राजनीति शतरंज होती है. उसके मोहरों की पहचान और चाल हार-जीत तय करते हैं. शतरंज का खेल मैंने कभी नहीं जीता, बस इतना समझ आया कि राजा और रानी को बचाने का खेल है उसके लिए कैसी भी चाल चलना पड़े और पैदल की मौत का जीत के आगे कोई मायने नहीं. फिर भी राजनीति से एक कदम बेहतर है शतरंज, वहां कोई अपने रंग यानि अपने पाले के खिलाड़ी को नहीं मारता.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)