मुख्यतः रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन यानि डीआरडीओ की पहचान एक ऐसे संगठन के रुप में है जो कि भारतीय सैन्य बलों के लिए अत्याधुनिक हथियार एवं संबंधित साजो सामान संबंधी तकनीक एवं प्रणाली को विकसित करता है। इसकी एक झलक झांसी में आयोजित आर्म्ड फोर्स इक्विपमेंट डिस्पले नामक प्रदर्शनी में देखने को मिली। लेकिन आज हम आपको डीआरडीओ की उस पहल से रुबरु कराएंगे जोकि एक सैनिक के पीछे की जरुरतों का ख्याल रखते हुए मानवीय जरुरतों की पूर्ति करने संबन्धित तकनीकि विकसित करने में लगा हुआ है।
डीआरडीओ की 50 से अधिक प्रयोगशालाओं में एक प्रयोगशाला समूह ऐसा भी है जिसे लाइफ साइंसेज क्लस्टर के नाम से जाना जाता है। इसी क्लस्टर में आने वाली एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रयोगशाला है-रक्षा अनुसंधान एवं विकास स्थापना डीआरडीई। ग्वालियर डीआरडीई का मुख्य कार्य जैविक एवं रासायनिक हथियारों की पहचान, उनसे बचाव एवं वातावरण शुद्धिकरण जैसे क्षेत्र से संबंधित तकनीकि विकसित करना है। साथ ही इसका कार्य देश पर होने वाले संभावित जैविक एवं रासायनिक हमलों से सुरक्षित रखना है। 17 से 19 तक आयोजित हाथी ग्राउण्ड प्रदर्शनी में डीआरडीओ की अन्य प्रयोगशालाओं के उत्पादों के साथ डीआरडीई ग्वालियर की कैम-बायोडिफेंस तकनीकियों का भी प्रदर्शन किया गया। डीआरडीई की ही अन्य महत्वपूर्ण टैक्नोलॉजी का भी प्रदर्शन किया गया, जिसे बायोडायजस्टर के नाम से जाना जाता है।
प्रयोगशाला के वैज्ञानिक डा.एमके मेघवंशी ने बताया कि यह मानव अपशिष्ट के उपचार हेतु प्रयोग में लाई जाती है। अत्यधिक ऊंचाई वाले पर्वतीय क्षेत्रों जैसे-लेह, लद्दाख व सियाचिन जैसे स्थानों पर तैनात सैन्य बलों के उपयोग के लिए विकसित इस तकनीकि को आज भारतीय रेलवे में भी इसे मानव अपशिष्ट के ऑन बोर्ड ट्रीटमेंट के प्रयोग में लाया जा रहा है। डीआरडीओ की इस तकनीकि पर आधारित बायोटॉयलेट के उपयोग से रेल परिवहन तंत्र को स्वच्छ बनाकर भारत सरकार के स्वच्छ भारत अभियान में मदद मिली है। वर्तमान में डीआरडीई इस तकनीकि के उन्नत एवं परिष्कृत रुप संबंधी अनुसंधान एवं विकास में कार्यरत है।