गुरुपूर्णिमा के पावन अवसर पर प्रस्तुत है संत कबीर के गुरु पर रचे दोहे
-सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार.
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावण हार.
-सतगुरु सांचा सुरिवां, सबद ज्यूं बाह्या एक.
लगत ही मैं मिल गया, पड्या कलैजे छैक.
-गूंगा हुआ बावला, बहरा हुआ कान.
पाऊं थैं पंगुल भया, सतगुरु मार्या बान.
-पीछैं लगा जाइ था, लोक बेद के साथि.
आगे थैं सतगुरु मिल्या, दीपक दिया हाथि.
-ज्ञान प्रकासा गुरु मिल्या, रलि गया आटैं लूण.
जाति पांति कुल सब मिटे, नांव धरौगे कौण.
-भली भई जो गुरु मिल्या, नहीं तर होती हाणि.
दीपक दिष्टि पतंग ज्यूं, पड़ता पूरी जाणि.
-पार ब्रह्म बूठा मोतियां, घड़ बांधी सिषराह.
सगुरां सगुरां चुणि लिया, चूक पड़ी निगुरांह.
-ऐसा कोई न मिलै, हम कौं दे उपदेस.
भौसागर में डूबतां, कर गहिं काढैं केस.
-भरम न भगा जीय का, अनंतहि धरिया भेष.
सतगुरु परचै बहिरा, अंतरि रह्या अलेष.
-चलौं चलौं सबको कहै, मोहि अंदेसा और.
साहिब सूं पर्चा नहीं, ए जाइंगे किस ठौर.
-कबीर हीरा-वणजिया, हिरदे उकठी खाणि.
पारब्रह्म क्रिपा करी, सतगुरु भये सुजाण.
-माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवै पडंत.
कहै कबीर गुरु ज्ञान थें, एक आध उबरंत.
-जाका गुर भी अंधला, चेला खरा निरंध.
अंधे अंधा ठेलिया, दून्यूं कूप पडंत.
-सतगुरु बपुरा क्या करै, जे सिषही मांहे चूक.
भावै त्यूं प्रमोधि ले, ज्यों बंसी बुजाई फूक.
-नां गुर मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या दाव.
दून्यूं बुड़े धार में, चढ़े पाथर की नाव.
-गुरु कृपाल कृपा जब किन्हीं, हिरदै कंवल बिगासा.
भागा भ्रम दसौं दिस सुझ्या, परम जोति प्रकासा.