लखनऊ। पारंपरिक वेषभूषाओं में सजेधजे जनजातीय कलाकारों ने विलुप्त प्राय वाद्य यंत्रों की सुमधुर प्रस्तुतियों से आनंदित कर दिया। संस्कृति विभाग उत्तर प्रदेश के लोक एवं जनजाति कला- संस्कृति संस्थान की ओर से विश्व आदिवासी दिवस पर आदि उत्सव का आयोजन हुआ। जिसमें सोनभद्र के 21 कलाकारों ने 21 दुर्लभ वाद्य यंत्रों के वादन और नृत्य की परंपरिक प्रस्तुतियां दीं। उत्सव का आयोजन
चौरी-चौरा शताब्दी महोत्सव एवं आजादी का अमृत महोत्सव के तहत हुआ। जिसकी प्रस्तुति गोमती नगर के अंतरराष्ट्रीय बौद्ध संस्थान सभागार में सोमवार को हुई। संस्कृति विभाग के फेसबुक पेज पर हुए इस अनूठे कार्यक्रम को देश-विदेश के संगीतप्रेमियों की खूब सराहना मिली।
कलाकारों ने दुर्लभ वाद्य यंत्र मादल, सिंघा, टईया, ढपला, शहनाई, मोरबीन, घुंघरु, पैजन, झाल और घुघरा सहित अन्य वाद्य यंत्रों के पारंपरिक वादन किये। लोक एवं जनजाति कला- संस्कृति संस्थान के निदेशक विनय श्रीवास्तव ने संस्थान की ओर से जनजातीय कलाओं के सरंक्षण कार्य और आयोजित आदि उत्सव पर प्रकाश डाला। संगीतप्रेमियों का स्वागत कर आभार जताया।
दुर्लभ वाद्य यंत्रों का वादन और पारंपरिक नृत्य के लोक रंगों में हर कोई डूब गया। पैरों में पैजन बांधे कलाकार, तो कभी सिंघा की गूंजतीं रणभेरी आवाज थी। रंगबिरंगी पारंपरिक वेषभूषाओं में सजे कलाकारों ने समूह नृत्य में विभिन्न करतबों से लोगों को अचंभित कर दिया। कभी पारंपरिक मादल की मीठी धुन पूरे वातावरण में अध्यात्मिक रंग घोल दे रहा थी। तो कभी वाद्य यंत्र घुघना और घसिया बाजा की पारंपरिक धुनें लोक जनजातीय रंगों से रूबरू करा रहीं थीं। झाल से निकलती झांझ जैसी धुन और मोरबीन से मउहर के स्वरों पर जनजातीय नृत्य लोगों को आनंदित कर गया। कतार में एक के पीछे एक थिरकते चलते कलाकारों की कदमताल और वाद्य यंत्रों की लय देखते बनी। मंच पर गिरतीं कभी धीमी तो कभी तेज प्रकाश रंगबिरंगी रोशनी ने पूरी प्रस्तुति को प्रभावशाली बनाया।
- इन वाद्य यंत्रों से रूबरू हुए संगीतप्रेमी
घुंघरुओं से गुंथा ‘पैजन’ लोहे का कड़े को आदिवासी कलाकार पारंपरिक लोक नृत्य के दौरान पैर में बांधकर करते हैं। आदिवासी जनजातियों का पूजनीय वाद्य यंत्र ‘मादल’ भगवान इंद्र की स्तुति के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। छोटे नंगाड़े सा दिखने वाला बारहसिंघा की सींग से बना ‘सिंघा’ जिसे गुदुंब और घसिया बाजा के रुप में भी जाना जाता है। लोक नृत्य के समय गले में टांगकर बजाया जाता है। साधारण सी डफ की तरह दिखने वाला वाद्य यंत्र ‘टईयां’ लकड़ी की छड़ से बजाया जाता है। छोटी गदानुमा ‘घुघना’ वाद्य यंत्र को घुघरा, झुनझुना के नाम से भी जाना जाता है। ‘झाल’ झांझ व बड़ा मंजीरा के नाम से भी प्रचलित है। दो हिस्सों में पीतल या फूल धातु के इस वाद्य यंत्र को आपस में टकराने पर ध्वनि होती है। ‘ढोल’ दिखने में प्रचलित ढोल से भिन्न यह वाद्य यंत्र लकड़ी की छड़ों से विभिन्न धार्मिक-वैवाहिक समारोह में बजाया जाता है। ‘मोरबीन’ को मउहर भी कहा जाता है। दिखने में बांसुरी के इस वा्द्य यंत्र को हवा फूंककर बजाया जाता है। ताड़ के पत्तों से बनी ‘आदिवासी शहनाई’ मूल शहनाई से भिन्न है। जिसे हवा फूंककर बजाया जाता है। - प्रस्तुति में ये रहे शामिल
प्रस्तुति पारंपरिक वाद्य यंत्रों के संग्रहकर्ता शेख इब्राहिम की परिकल्पना, निर्देशन में हुई। जिसमें सहयोगी संतोष कुमार गौतम व सिराज अहमद थे। ढपला पर रामसूरत, मादल पर गजाधर, बाबूलाल व नगीना, सिंघा पर बिरजू, टईयां पर राममूरत, मोरबीन पर हंसू, सिंघा पर छोटे लाल, ढोल पर रंगीला, घुघना पर मुन्ना, झाल पर रम्पत, डिग्गी पर शब्बन ने वादन किया। जनजातीय नृत्य – दुलारी, फूलकुमारी, आशा, चमेली सुदामा ने पारंपरिक रंग पेश किये।