हाल ही में संपन्न हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव मैनपुरी जिले की करहल सीट से विधायक चुने गए है। चुनाव जितने के बाद अखिलेश के सामने यह सवाल खड़ा हो गया था कि वो अब सांसद पद छोड़ेंगे या विधायक पद?। इसके लिए अखिलेश ने पार्टी नेताओं, कार्यकर्ताओं के साथ-साथ जनता से भी जवाब मांगा था। तो वहीं, अब अखिलेश यादव ने मंगलवार 22 मार्च को लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है। लोकसभा स्पीकर ओम बिरला को अपना इस्तीफा वाले अखिलेश यादव ने बताया है कि क्यों उन्होंने करहल सीट से विधायक बने रहने का फैसला किया है।
अखिलेश ने बताया क्यों लिया फैसला इस दौरान पूर्व सीएम अखिलेश यादव ने कहा कि वो आजमगढ़ की तरक्की के लिए काम करते रहने का भी वादा किया है। उन्होंने बुधवार को ट्वीट करते हुए लिखा, विधानसभा में उप्र के करोड़ों लोगों ने हमें नैतिक जीत दिलाकर ‘जन-आंदोलन का जनादेश’ दिया है। इसका मान रखने के लिए मैं करहल का प्रतिनिधित्व करूंगा व आज़मगढ़ की तरक़्क़ी के लिए भी हमेशा वचनबद्ध रहूंगा। महंगाई, बेरोज़गारी और सामाजिक अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष के लिए ये त्याग जरूरी है।
विपक्ष में निभा सकते हैं जोरदार भूमिका यूपी विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी सत्ता से काफी दूर रह गई है, लेकिन ये बात भी उतनी ही सही है कि सूबे में पार्टी की राजनीतिक ताकत काफी बढ़ी है। 47 विधायकों से बढ़कर पार्टी के पास अपने 111 विधायक हो गए हैं और वोट शेयर भी करीब 22% से बढ़कर 32.06% हो गया है। ऐसे में वो पांच साल तक उत्तर प्रदेश की राजनीति में सक्रिय रहकर भारतीय जनता पार्टी की सरकार को सड़क से लेकर सदन तक घेर सकते हैं। उनके शुभचिंतकों की ओर से भी लगातार यही सलाह दिए जा रहे थी। लखनऊ में रहकर अखिलेश 2024 की भी तैयारी कर सकते हैं, जहां पिछली दो बार से उनकी पार्टी 5 सीटों पर ही सिमट रही है।
कार्यकर्ताओं के छिटकने का बढ़ सकता है खतरा अखिलेश यादव ने 2022 के विधानसभा चुनाव में जिस तरह से सोशल इंजीनियरिंग की थी, उससे उनके कार्यकर्ता मान बैठे थे कि अखिलेश का दोबारा मुख्यमंत्री बनना तय है। हालांकि, पार्टी को चुनाव में सफलता नहीं मिल सकी। तो वहीं, अब अखिलेश यादव को यह डर सताना स्वाभाविक है कि सत्ता से पांच साल की निश्चित दूरी कार्यकर्ताओं के जोश को पूरी तरह तोड़ सकता है। यदि वे यूपी में रहकर राजनीति करेंगे तो कार्यकर्ताओं को लगेगा कि भविष्य खत्म नहीं हुआ है। 2024 और 2027 में फिर से तस्वीर बदली जा सकती है। क्योंकि, पांच साल तक कार्यकर्ताओं को छोड़ने से उनके छिटकने का खतरा बढ़ना तय है।
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गठबंधन को साथ रखना हैं अखिलेश के लिए चुनौती सपा को पूर्वांचल में ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी से गठबंधन करना काफी फायदेमंद लग रहा है। लेकिन, पश्चिमी यूपी में जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोक दल से गठबंधन उतना सफल नहीं रहा है, जितना की दावा किया जा रहा था। इलाके की 126 सीटों में से 85 यानि 67 फीसदी फिर भी बीजेपी जीत गई है। यही नहीं स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेता को भाजपा से तोड़कर लाने का भी फायदा नहीं दिखा, जो अपनी सीट भी हार गए। बदली परिस्थितियों में राजभर की फिर से पलटी मारने की एक खबर भी उड़ चुकी है, हालांकि उन्होंने इसका खंडन किया है। ऐसे में माहौल में पहले लोकसभा चुनाव तक और फिर 2027 तक सभी सहयोगियों को साथ रखना भी उनके लिए बड़ी चुनौती है, जिसका सामना यूपी की राजनीति करके ज्यादा आसानी से किया जा सकता है।