उत्तर प्रदेश के बसपा प्रमुख की चुप्पी, किसी अप्रत्याशित बदलाव की तरफ इशारा तो नहीं

उत्तर प्रदेश में निर्वाचन आयोग की अधिसूचना जारी होते ही, प्रदेश के चुनावी मौसम में राजनैतिक बयानबाजी की गर्माहट शुरू हो चुकी है, सभी दलों के प्रमुख नेता अपने दल एवं अपने आप को बेहतरीन दिखाने में जुटे हुये हैं, देरी है तो तो बस सभी दलों के टिकट बंटवारे की। सभी जिलों में प्रत्याशियों के नाम फाइनल होते ही बहुत सी दुविधाओं एवं संशय को विराम लग सकता है ।

वहीं उत्तर प्रदेश का प्रमुख दल बहुजन समाज पार्टी की बात की जाये तो एक समय उत्तर प्रदेश में एकछत्र राज करने एवं स्वयंभू नेतृत्व की क्षमता रखने वाली मायावती की अघोषित चुप्पी एक संशय की स्थिति पैदा कर रही है। राज्य के प्रमुख राजनीतिक दल बसपा की चुप्पी से हर कोई अचरज में है कि आखिर चुनावों के पहले प्रमुख राजनीतिक दल के शीर्ष नेतृत्व की इस कदर की खामोशी के निहितार्थ क्या है?

राजनीति में चुनाव महोत्सव की तरह होते हैं। ओलम्पिक खेल यदि हर चार वर्ष बाद आयोजित किए जाते हैं तो लोकतंत्र के इन खेलों का आयोजन हर पांच साल बाद होता है। राजनीति में भी बदलाव की प्रक्रिया सतत चलती रहती है। नए नए नेता व राजनीतिक दल समय-समय पर उभरते रहते हैं। तो कई पुराने दलों पर संकट के बादल छाते हैं। किसी एक दल या नेता का हमेशा एकाधिकार बना रहे ऐसा कम ही देखने में आता है। अन्य क्षेत्रों की तरह राजनीति में भी उत्थान पतन का दौर आता है। 80 के दशक में किसी ने सोचा था कि ऐसा भी वक्त आएगा जब कांग्रेस का दौर खत्म हो जाएगा। और कांग्रेस को अपने अस्तित्व के लिए भी जूझना पड़ सकता है।

दलित चिंतक व विचारक काशीराम ने बहुसंख्यकों विशेषकर दलितों को एकजुट करने की 80 के दशक में मुहिम शुरु की थी। मिशन मोड पर दलितों के मध्य जाना, उनसे संवाद स्थापित करना, राजनीति की महत्ता के बारे में चर्चा करना, दलितों को सत्ता से जान बूझकर वंचित रखने, दलितों को आबादी के मुताबिक भागेदारी न मिलना जैसे तमाम मुद्दों पर काशीराम ने पैठ बनाना शुरु की थी। इस मुहिम के परिणाम भी निकलने लगे। जब बड़ी संख्या में दलित काशीराम की मुहिम से जुड़ने लगे थे। इसी मिशन जनसम्पर्क अभियान के दौरान युवा अधिवक्ता मायावती भी कांशीराम के सम्पर्क में आई। जो बाद में वकालत छोड़ पूरी तरह कांशीराम के अभियान के साथ जुड़ गईं।

” तिलक, तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार ” जैसे बवाली नारे के साथ शुरु हुआ सफर धीरे-धीरे जोर पकड़ता गया। क्योंकि वे दलित जिन्होंने होश संभालने के बाद सवर्णों और पिछडों के अत्याचार, अपमान को अपनी नियति मान रखा था उनको लगा कि समाज में कोई तो है जो इन कौमों के खिलाफ जूते मारने जैसे नारों के साथ अपनी आवाज को बुलंदी से रख रहा है। बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर को आदर्श मान कर दलितों को संगठित करने की मुहिम बिना किसी हल्ला गुल्ला और शोर-शराबे के सभी दलित बस्तियों तक पहुंचने लगी थी। भारत में किसी भी संगठन की असली ताकत उसकी राजनीतिक सक्रियता और राजनीति में भागेदारी से आँकी जाती है। डीएसफोर से शुरु हुआ सफर बहुजन समाज पार्टी तक पहुंचा। जिसका नारा था कि ”जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी” दलितों की आबादी के मुताबिक सत्ता में हक से भागेदारी मांगने का यह अंदाज इसके पहले कभी नहीं देखा गया था। तीखे तेवरों का परिणाम यह हुआ कि दलित समाज धीरे-धीरे बसपा के प्रति संगठित होने लगा। दलितों में भी राजनीतिक चेतना का संचार बढ़ा। आजादी के बाद जो दलित समुदाय कांग्रेस से प्रतिबद्धता से जुड़ा था धीरे-धीरे बसपा से जुड़ने लगा। बसपा ने अपना राजनीतिक आधार बढ़ाने के लिए मुस्लिमों व अन्य पिछडों को पार्टी से जोड़ना शुरु कर दिया। देखते ही देखते बसपा की ताकत बढ़ने लगी। साथ में पार्टी की सीटें भी।

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बसपा की अकेले दम पर सरकार बनाने की हैसियत तो नहीं बन पाई थी लेकिन सरकार बनाने व बिगाड़ने की स्थिति में जरूर पार्टी पहुंच गई थी। 1995 में 3 जून को वह दिन भी आया जब बसपा नेत्री मायावती को देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की बागडोर संभालने का मौका मिला। एक दलित की बेटी सीएम की कुर्सी पर बैठी।

कभी सपा, कभी भाजपा से गठजोड़ करके मायावती को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर 1995 के बाद 1997 एवं इसके बाद 2002 में बैठने का मौका मिला। पहले कार्यकाल में 137 दिन, 1997 में 184 दिन, 2002 में 1 वर्ष 118 दिन मायावती मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठीं। तीनों ही बार मायावती को कार्यकाल पूरा करने का मौका नहीं मिला। लेकिन 2007 में वह मौका भी आया जब बसपा को बहुमत मिला और मायावती की अकेले दम पर सरकार बनी। इस तरह मायावती को रिकार्ड चार बार मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला।

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चुनावों के समय बसपा हमेशा चर्चा में रही है। लेकिन इस बार बसपा साइलेंट मोड में नजर आ रही है। पार्टी सुप्रीमो मायावती किसी दल से गठबंधन न करने की घोषणा तो बहुत पहले कर चुकी हैं। लेकिन चुनाव प्रचार को लेकर भी वे अभी तक सक्रिय नहीं हुई हैं। पार्टी के महासचिव सतीश चन्द्र मिश्र की अपनी सीमायें हैं एवं उनका मायावती जैसा कद भी नहीं है। पार्टी के टिकट के तमाम दावेदार अभी तक उहापोह में हैं। हालांकि पार्टी कुछ उम्मीदवारों की घोषणा पहले ही कर चुकी है। 2017 के चुनावों में बसपा वोटों के मामले में दूसरे स्थान पर रही थी। ऐसे में पार्टी को गंभीरता से न लेना अन्य दलों के लिए भारी पड़ सकता है। चुनाव तिथियों की घोषणा के बाद बसपा की वास्तविक स्थिति का खुलासा होगा। तब तक कयासबाजियों का दौर चलता रहेगा।