राजस्थान में पहले करौली और अब जोधपुर की हिंसा ने पूरे देश में चिंता उत्पन्न की है। जोधपुर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का गृहनगर भी है। वह कह रहे हैं कि उन्होंने संपूर्ण जीवन पंथनिरपेक्षता की रक्षा के लिए लगाया है। आखिर ऐसी सफाई देने की नौबत आई क्यों? गहलोत और उनके समर्थकों की नजर में पंथनिरपेक्षता का अर्थ क्या है, इसे भी उन्हें स्पष्ट करना चाहिए। करौली में नव संवत्सर के अवसर पर निकाली गई शोभायात्रा पर हमले के बाद की कार्रवाई में निष्पक्षता अभी तक नहीं दिखी। अगर करौली की घटना के बाद पुलिस प्रशासन ने पूरी सख्ती दिखाई होती, शोभा यात्रा पर हमले के दोषी पकड़े जाते तो शायद जोधपुर की हिंसा देखने को नहीं मिलती। करौली हिंसा का पूरा सच सामने था, लेकिन सरकार भाजपा पर आरोप लगाने में ज्यादा शक्ति खर्च करती रही।
सरकार ने मजहबी कट्टरपंथी तत्वों पर थोड़ा भी फोकस किया होता तो तस्वीर दूसरी होती। वास्तव में करौली हिंसा पूरे राजस्थान में सतह के अंदर व्याप्त स्थिति का एक प्रकटीकरण मात्र थी। निश्चय ही इसके बाद सरकार ने खुफिया रपटों का अध्ययन किया होगा। यह संभव नहीं कि एक ही दिन ईद और परशुराम जन्मोत्सव होने के कारण तनाव, हिंसा आदि की आशंका खुफिया रपटों में न हो। इसे ध्यान में रखते हुए संवेदनशील स्थानों पर सख्त सुरक्षा व्यवस्था एवं हिंसा रोकने संबंधी कदम उठाए जाने चाहिए थे, लेकिन जोधपुर की घटना बताती है कि ऐसा नहीं किया गया।
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करौली और जोधपुर के अलावा देश के विभिन्न हिस्सों में शोभा यात्रओं पर हुए हमलों ने यह साफ कर दिया है कि बड़ी संख्या में भारत विरोधी तत्व सांप्रदायिक हिंसा फैला कर देश की एकता को बाधित करना चाहते हैं। पकड़े गए लोगों से पूछताछ के बाद कई ऐसे तथ्य सामने आ रहे हैं, जो भय पैदा करते हैं। करौली की घटना के बाद गहलोत सरकार की जिम्मेदारी थी कि पूरी स्थिति की समीक्षा कर नए सिरे से सुरक्षा व्यवस्था पुख्ता करती। उसने ऐसा नहीं किया। जोधपुर में परशुराम जन्मोत्सव पर शोभायात्रा निकालने की घोषणा हो चुकी थी। तय मार्ग पर यात्र के आयोजकों ने जगह-जगह भगवा झंडे लगाए थे। चूंकि प्रशासन ने शोभा यात्र की अनुमति दी थी, इसलिए यह जिम्मेदारी उसकी ही थी कि कहां झंडे लगेंगे और कहां नहीं? यदि आरंभ में उसने शर्त लगाई होती कि कहीं झंडे नहीं लगेंगे तो नहीं लगते।