नेपाल में राजशाही की वापसी संभव? बेरोजगारी-महंगाई से भड़का आंदोलन

काठमांडू/रक्सौल। भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और महंगाई जैसी समस्या का समाधान ‘राजा की शरण’ में मिल जाने की उम्मीद में ‘लोकतंत्र’ को समाप्त कर ‘राजतंत्र’ की वापसी के लिए संघर्ष शुरू करने वाले दुनिया के पहले देश नेपाल में यह आंदोलन अब पहाड़ से उतरकर मैदान की ओर फैलने लगा है। भारत के सीमवर्ती राष्ट्र नेपाल में “राजतंत्र” की वापसी का आंदोलन बहुत कम समय में ही देशव्यापी विस्तार पाने लगा है। बेरोजगारी और महंगाई से उत्पन्न नाराजगी युवा कंधों पर सवार होकर पहाड़ी क्षेत्रों से उतरकर मैदानों इलाकों में फैलने लगी है। इसके ठीक विपरीत “लोकतंत्र” की स्थापना का आंदोलन मैदानी क्षेत्रों से निकलकर पहाड़ों इलाकों की ओर गया था।

देश की राजधानी काठमांडू से चला आंदोलन हेठौरा और नरायणघाट की सर्पाकार पहाड़ी सड़कों से गुजरकर भारत के सीमावर्ती बीरगंज, विराटनगर, नेपालगंज और जनकपुर के मैदानी क्षेत्रों तक पहुंच गया है। नेपाल की आर्थिक राजधानी माने जाने वाले बीरगंज के घंटाघर पर प्रत्येक दूसरे दिन राजतंत्र की वापसी के लिए होने वाले प्रदर्शन इसकी गवाही देते हैं। नेपाल, ऐसा पहला राष्ट्र है जहां “लोकतंत्र” को समाप्त कर “राजतंत्र” की पुनर्स्थापना के लिए आंदोलित जनता सड़कों पर उतरी है। नेपाल में राजतंत्र को समाप्त कर वर्ष 2008 में लोकतंत्र की स्थापना की गयी थी। यहां का लोकतंत्र किशोरवय अवस्था में है। महज 17 वर्ष की अवधि में यह व्यवस्था जनता का विश्वास खो बैठी है। रविवार को भी बीरगंज और नेपालगंज में सड़कों पर “हाम्रो राजा हाम्रो देश, प्राण भन्दा प्यारो छ” और “राजा लाउ, देश बचाऊ” के नारों के साथ राजतंत्र की वापसी के लिए लोग सड़कों पर निकले।

एक समय था जब लोकतंत्र की स्थापना के लिए वर्ष 1990 से 2006 तक नेपाल की अवाम आंदोलित रही, तब मैदानी इलाकों से राजतंत्र की समाप्ति की उठी मांग हिंसक होकर नेपाल के पहाड़ी क्षेत्रों पर चढ़ गयी। अनगिनत जानें गयीं। इस दौरान स्वगठित माओवादी सेना का मजबूत ठिकाना माना जाने वाला नेपाल का पहाड़ी क्षेत्र आज “राजा लाउ, देश बचाऊ” के नारे से आंदोलित हो रहा है। पहाड़ों से निकलकर बड़ी तेजी से “राजतंत्र” वापसी का आंदोलन देशव्यापी हो गया है। इस आंदोलन पर एक नजर डालें तो 19 फरवरी 2025 को निवर्तमान राजा ज्ञानेंद्र वीर बिक्रम शाह देव ने जनता को सम्बोधित किया। फिर 05 मार्च को राजधानी काठमांडू में राजशाही की पुनर्वापसी के लिए एक बाइक रैली निकाली गयी। 09 मार्च को रैली, प्रदर्शन में बदल कर बड़ी हो गयी।

12 मार्च को 10 हजार लोगों की भीड़ ने काठमांडू के त्रिभुवन अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डा पर अपने पूर्व राजा ज्ञानेंद्र का “नारायणहिटी (राजनिवास) खाली करो” के नारे के साथ स्वागत किया। उसके बाद हेठौरा, नरायणघाट, बीरगंज, विराटनगर, नेपालगंज और जनकपुर जैसे प्रमुख शहरों में राजशाही की वापसी के लिए रैलियां निकलने लगी। चंद दिनों में ही राजतंत्र की पुनर्स्थापना के लिए चल रहा आंदोलन 29 मार्च को स्वस्फूर्त हिंसक संघर्ष में बदल गया। दो लोग मारे गए, 30 आंदोलनकारी और 20 शस्त्रबल के जवान घायल हुए। दर्जनों व्यवसायिक संस्थान और वाहन फूंक दिए गए। नेपाल के कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में औद्योगिक संरचना की भूमिका 20 प्रतिशत है। यह पूरी संरचना कृषि पर आधारित चीनी, जूट और चाय जैसे उत्पादों पर निर्भर है।

राजतंत्र की समाप्ति के बाद गुजरे 17 वर्षों में बनने वाली सरकारें इनको विस्तार नहीं दे पाईं। दूसरी तरफ पहले से मौजूद उद्योग बुनियादी ढांचे की कमी, पूंजी की कमी और कुशल श्रम शक्ति की कमी जैसे समस्याओं से आज भी जूझ रहे हैं। ऐसे में रोजगार सृजन की संभावनाओं पर एक अघोषित विराम से लगा है। कुछ ऐसे ही हालात की शिकार नेपाल का कृषि क्षेत्र भी है। आज भी कृषि नेपाल की प्रमुख आर्थिक गतिविधि है, जो लगभग 65 प्रतिशत आबादी को रोजगार देती है और सकल घरेलू उत्पाद में 31.7 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखती है लेकिन व्यवस्थागत उपेक्षा ने इसे मजबूत नहीं होने दिया है। ये ऐसे कारण हैं जिसने युवा वर्ग को भी मौजूदा व्यवस्था से नाराज कर दिया है। मौजूदा हालात नेपाल की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए मुफीद नहीं माने जा सकते।

आश्चर्जनक रूप से इस आंदोलन में युवाओं की भागीदारी दिखने लगी है। ऐसे युवा अपनी बाइक पर या फिर हाथों में राजशाही समर्थक नारे लिखकर नेपाल की सड़कों पर निकलने लगे हैं। ये युवा बेरोजगारी और महंगाई से नाराज हैं। ऐसे ही एक युवा बीरगंज निवासी सुबोध कुमार ने समाचार एजेंसी ‘यूनीवार्ता’ को बताया, “महंगाई और बेरोजगारी चरम पर है। नए उद्योग नहीं लग पा रहे और अधिकांश पुराने उद्योग या तो बीमार हैं या बंद पड़े हैं। ऐसे में युवा खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं।