बॉलीवुड के अनकहे किस्सेः रेशमा और शेरा के लिए अपना घर भी गिरवी रखा सुनील दत्त ने

1971 में प्रदर्शित सुनील दत्त की फ़िल्म रेशमा और शेरा उनकी महत्वाकांक्षी फिल्म थी जिसका निर्माण और निर्देशन उन्होंने स्वयं किया था। इसे यादगार फ़िल्म बनाने के लिए उन्होंने भरपूर पैसा लगाया और जी तोड़ मेहनत भी की। यह सुखदेव के एक वृत्तचित्र फिल्म से प्रेरित होकर बनाई गई थी। इसको सुखदेव के साथ अली रजा ने लिखा था हालांकि वह इसके लिए तैयार नहीं थे। उन्हें लगता था यह फिल्म बनाने लायक कहानी नहीं है, लेकिन सुनील दत्त के इसरार पर उन्होंने फ़िल्म लिखी। निर्देशन संगीत और पटकथा के हिसाब से यह फिल्म उस दशक की फार्मूला फ़िल्मों से बिलकुल अलग थी। इस फ़िल्म से दो कलाकारों को अपनी पहचान बनाने में सहायता मिली थी। यह कलाकार थे अमिताभ बच्चन और राखी। एक खास तरह की उदासी और तनाव से भरी फ़िल्म में रामचंद्र की सिनेमैटोग्राफी ने रेत के टीलों के साथ राजस्थान के रंगों को खूब अच्छे से उजागर किया था। यह फिल्म राजस्थान के दो कबीलों करदास और पोचीनास की आपसी दुश्मनी को दर्शाती है।

दरअसल रेशमा और शेरा अपने परिवारों के बीच की दुश्मनी से परेशान हैं और एक दूसरे से प्यार करते हैं। जब शेरा उनको समझाने और शांत करने की कोशिश करता है तो उसका बाप रेशमा के बाप और भाई की हत्या करवा देता है। मारने वाला शेरा का प्यारा गूंगा भाई है जो किरदार अमिताभ बच्चन ने निभाया था। तब रेशमा उसकी जिंदगी बचाने के लिए उससे शादी कर लेती है। क्योंकि शेरा रेशमा से प्यार करता है इसलिए उसके पति को मार नहीं सकता। अमिताभ के साथ ही राखी की अदाकारी ने भी लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा था। राखी ने लाचार और हताश लड़की के किरदार को बहुत खूबी से निभाया था, जिसके पति की शादी के कुछ ही घंटे बाद हत्या कर दी जाती है।

राखी ने एक इंटरव्यू में बताया था की 15 दिन तो दत्त साहब मुझे अपने किरदार में घुसने के लिए सुबह पांच बजे उठाते थे और सारे जेवर पहनाकर जो लगभग 15 किलो के थे, रोज ऊंट की सवारी करवाते थे। पंद्रह दिन केवल मैंने गांव वाले कैसे चलते, खाते पीते हैं उसको सीखा। दत्त साहब टेंटों में हमारे साथ ही रहते थे और सारे ग्रुप पर रात-दिन नजर रखते थे। एक दिन मैं राजस्थानी पोशाक पहनकर पान चबाते हुए बाहर निकल गईं तो दत्त साहब बहुत गुस्सा हुए और बाकायदा मुझे रेत के सबसे ऊंचे टीले पर ले जाकर धमकाया कि आइंदा अगर ऐसा किया तो वह उन्हें यहां से नीचे धकेल देंगे।

इसमें पद्मा खन्ना का तौबा तौबा मेरी तौबा शीर्षक से एक आइटम नंबर भी था जो उस समय बहुत लोकप्रिय हुआ। इस फिल्म की शूटिंग जैसलमेर से 80 किलोमीटर दूर एक गांव पोचीना में हुई थी। फिल्म कुल 15 दिन की शूटिंग में बननी थी, लेकिन इसमें दो महीने से ज्यादा लगे। जैसलमेर से खाने की रसद आती थी और सभी की डाक भी उसी दिन पहुंचाने की व्यवस्था की गई थी। यूनिट के सभी 100 के लगभग लोगों को ऊंट पर बैठना सिखाया गया था। बारीकियों का तो यह हाल था कि एक बार किसी सीन में दत्त साहब को सौ ऊंटों की जरूरत थी और सेट पर 99 ऊंट थे तो उन्होंने शूटिंग कैंसिल कर दी थी। इन्हीं कारणों से सुनील को पैसे की तंगी हुई थी, जिसके चलते उन्हें अपना घर भी गिरवी रखना पड़ा था। उनकी लगन देखकर नरगिस ने यह विश्वास जताया था कि यह फिल्म दुनिया की 10 क्लासिक फिल्मों में गिनी जाएगी। फिल्म अच्छी बनी थी और भारत सरकार द्वारा उसे तीन राष्ट्रीय पुरस्कार वहीदा रहमान को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री, रामचंद्र को श्रेष्ठ कैमरामैन और जयदेव को श्रेष्ठ संगीतकार पुरस्कार से नवाजा गया था। सुनील दत्त इस फ़िल्म को मई 1972 में ताशकंद फिल्म उत्सव और जून 1972 में बर्लिन उत्सव में भी भारत की तरफ से ले गए थे। जयदेव द्वारा संगीतबद्ध गीत_ तू चंदा मैं चांदनी और एक मीठी सी चुभन बहुत सराहे गए थे।

चलते चलतेः दस साल के संजय दत्त की यह पहली फिल्म थी जिसमें उसने एक कव्वाली जालिम मेरी शराब में यह क्या मिला दिया, में काम किया था। प्रमुख कव्वाल की भूमिका में सुधीर थे। कव्वाली गाने वाले के रूप में संजय काफी अच्छे लग रहे थे हालांकि बीच-बीच में उनकी आंखें अपने पापा को ढूंढती हुई नजर आती हैं। इस रोल के बाद काफी दिनों तक यूनिट के सभी लोग उन्हें चमेली जान कहकर चिढ़ाते रहे थे।

(लेखक- राष्ट्रीय साहित्य संस्थान के सहायक संपादक हैं। नब्बे के दशक में खोजपूर्ण पत्रकारिता के लिए ख्यातिलब्ध रही प्रतिष्ठित पहली हिंदी वीडियो पत्रिका कालचक्र से संबद्ध रहे हैं। साहित्य, संस्कृति और सिनेमा पर पैनी नजर रखते हैं।)