सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों को सलाह दी है कि उन्हें फैसलों के दौरान ऐसी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए, जिससे यह संदेश जाए कि बेटा ही वंश को आगे बढ़ाता है और माता-पिता के लिए बुढ़ापे का सहारा बनता है। बेटा ही नहीं, बेटी भी बुढ़ापे की लाठी होती है।
सुप्रीम कोर्ट ने सात साल के बच्चे की हत्या के मामले में फांसी की सजा पाए दोषी की पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की। चीफ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा की बेंच ने बच्चे के अपहरण तथा हत्या के मामले में दोषी को फांसी की सजा से राहत देने से इनकार कर दिया। अदालत ने हाई कोर्ट के फैसले में की गई टिप्पणी पर भी ऐतराज जताया। मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने फैसले में कहा था, इकलौते बेटे की हत्या से उसके माता-पिता को सदमा लगा है। बच्चा उनके वंश को आगे बढ़ाता और बुढ़ापे का सहारा होता। उसकी हत्या कगंभीर और क्रूर अपराध है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अदालतों का इस तरह की टिप्पणी करना उचित नहीं है।
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लड़का या लड़की, हत्या सदैव दुखद
शीर्ष अदालत ने कहा कि यह मायने नहीं रखता कि हत्या किसकी हुई। हत्या सदैव दुखद है। भले मारने वाले ने लड़की या लड़के को मारा हो। ऐसे मामलों में अदालतों को पितृसत्तात्मक धारणा को मजबूत करने वाली टिप्पणियां करने से बचना चाहिए।