कश्मीर के भारत में विलय प्रक्रिया में पंडित नेहरू की भूमिका, क्यों रहते हैं निशाने पर… समझें

हाल ही में गुजरात में एक रैली के दौरान पीएम नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने कश्मीर संकट को लेकर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) पर परोक्ष हमला बोला. उन्होंने पंडित नेहरू का नाम लिए बगैर कहा, ‘सरदार पटेल (Sardar Patel) ने भारत में विलय के लिए सभी रियासतों को राजी कर लिया था, लेकिन एक अन्य शख्स ने कश्मीर के रूप में सिर्फ एक मसले का जिम्मा उठाया.’ इसके पहले भी भारतीय जनता पार्टी (BJP) के राजनेता कई अवसरों पर कश्मीर (Kashmir) संकट के लिए पंडित नेहरू पर दोषारोपण करते आए हैं. इसी साल सितंबर में गृह मंत्री अमित शाह ने गोरेगांव, मुंबई में एक रैली में कश्मीर के कुछ भूभाग पर पाकिस्तान के कब्जे के लिए पंडित नेहरू को कठघरे में खड़ा किया. पंडित नेहरू की सरदार पटेल से तुलना करते हुए अमित शाह ने कहा कि सरदार पटेल को कश्मीर मसले की जिम्मेदारी भी दी जानी चाहिए थी. इसी साल की शुरुआत में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पंडित नेहरू पर हमला बोलते हुए ब्रिटेन की सलाह पर कश्मीर के मसले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाकर उसका अंतरराष्ट्रीयकरण करने का आरोप मढ़ा. उन्होंने कहा कि पड़ोसी देश पाकिस्तान आज तक इसका गलत इस्तेमाल कर रहा है.

भारत की आजादी से पहले कश्मीर

जब अंग्रेजों ने भारतीय उपमहाद्वीप से जाने का फैसला किया, तो 500 के आसपास भारतीय रियासतों के भाग्य का फैसला बाकी था. कांग्रेस ने 1930 के दशक के अंत में ही रियासतों के भारतीय संघ में विलय करने के निर्णय की घोषणा कर दी थी. नतीजतन सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में एक नया राज्य विभाग स्थापित किया गया. वीपी मेनन इसके सचिव थे.  उन्होंने रियासतों को भारतीय संघ में शामिल होने की रणनीति बनाने और मनाने के लिए लॉर्ड माउंटबेटन के मार्गदर्शन में काम करना शुरू किया. इन 500 रियासतों में सबसे महत्वपूर्ण जम्मू और कश्मीर की रियासत थी. यह न सिर्फ भारत में सबसे बड़ी रियासत थी, बल्कि सामरिक रूप से बेहद संवेदनशील भी. जम्मू-कश्मीर रियासत बंटवारे से अस्तित्व में आए पाकिस्तान के साथ अपनी सीमाओं को साझा करती थी. अधिसंख्य मुस्लिम आबादी वाली इस रियासत पर डोगरा वंश के महाराजा हरि सिंह का शासन था, जो सितंबर 1925 में रियासत के तख्त पर आसीन हुए थे. हालांकि महाराज हरि सिंह अपना ज्यादातर समय शिकार और घुड़दौड़ में बिताने के लिए जाने जाते थे.

शेख अब्दुल्ला का उदय और पंडित नेहरू से उनकी दोस्ती

1930 के दशक में कश्मीर के राजनीतिक परिदृश्य पर शेख अब्दुल्ला का उदय होता है. एक शॉल व्यवसायी के बेटे शेख अब्दुल्ला ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से साइंस में डिग्री हासिल की थी. कश्मीर में सरकारी नौकरी नहीं मिल पाने पर शेख अब्दुल्ला ने राज्य में मुसलमानों के प्रति रवैये पर सवाल उठाने शुरू किए. उस वक्त राज्य प्रशासन पर हिंदुओं का प्रभुत्व था. प्रख्यात इतिहासविद और लेखक रामचद्र गुहा अपनी किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में शेख अब्दुल्ला के हवाले से लिखते हैं, ‘हम राज्य में बहुमत में हैं और राजस्व में भी हमारा योगदान सबसे ज्यादा है. फिर भी हम पर लगातार अत्याचार हो रहा है… अब मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि मुसलमानों के साथ दुर्व्यवहार वास्तव में धार्मिक पूर्वाग्रह का परिणाम था.’ गुहा के मुताबिक शेख अब्दुल्ला इस बयान का अक्सर इस्तेमाल करते थे. 1932 में शेख अब्दुल्ला ने अन्य मुस्लिमों के साथ मिलकर राज्य के शासक के विरोध में ऑल जम्मू कश्मीर मुस्लिम कांफ्रेंस का गठन किया, जो कालांतर में ‘नेशनल कांफ्रेंस’ में तब्दील हो गई. इस पार्टी में मुसलमानों के अलावा हिंदू और सिख भी थे. पार्टी ने सार्वभौमिक मताधिकार के आधार पर एक प्रतिनिधि सरकार की मांग उठाई. इसी समय के दौरान शेख अब्दुल्ला जवाहरलाल नेहरू के संपर्क में आए और जल्द ही गहरे दोस्त बन गए. इसका आधार बनी थी हिंदू-मुस्लिम सौहार्द्र औऱ समाजवाद के प्रति दोनों की प्रतिबद्धता. 1940 के दशक में शेख अब्दुल्ला की कश्मीर में लोकप्रियता लगातार बढ़ती रही. ऐसे में उन्होंने डोगरा वंश से कश्मीर छोड़कर जाने की मांग की. जाहिर है महाराजा हरि सिंह ने एक नहीं कई बार शेख अब्दुल्ला को जेल में डाल अपना जवाब दिया. 1946 में राष्ट्रद्रोह के लिए उन्हें तीन साल की सजा सुनाई गई. इसकी जानकारी होते ही पंडित नेहरू उनकी मदद के लिए पहुंचे, लेकिन महाराजा हरि सिंह के आदमियों ने उन्हें राज्य में प्रवेश तक नहीं करने दिया.

कश्मीर का भारत में विलय

जब भारत या पाकिस्तान में कश्मीर के विलय का सवाल उठा तो महाराजा हरि सिंह ने स्वतंत्र रहने का अपना इरादा साफ कर दिया. रामचंद्र गुहा लिखते हैं, ‘वह कांग्रेस से नफरत करते थे. ऐसे में एकीकृत भारत में शामिल होने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे, लेकिन अगर वह पाकिस्तान में शामिल होते तो हिंदू वंश का संभवतः अंत हो जाता.’ महाराजा पंडित नेहरू को कतई पसंद नहीं करते थे, क्योंकि उन्होंने शेख अब्दुल्ला के ‘कश्मीर छोड़ो’ आंदोलन को खुलेआम समर्थन दिया हुआ था. हालांकि पंडित नेहरू के लिए कश्मीर बेहद जटिल मसला था. एक तरफ रियासतों को भारत में शामिल होने के लिए मनाने की जिम्मेदारी पटेल के हाथों थी, जिसे उन्होंने लगभग पूर्ण स्वायत्तता के साथ अंजाम दिया. यह अलग बात है कि कश्मीर के मामले में पंडित नेहरू व्यक्तिगत रूप से शामिल थे. ज्यॉग्राफर सिमरित कहलो ने अपने लेख ‘कश्मीर और नेहरू: एक परेशान विरासत की रूपरेखा’ (2020) में पंडित नेहरू के कश्मीर प्रेम का उल्लेख किया है. पंडित नेहरू का कश्मीर प्रेम उनके व्यक्तिगत और आधिकारिक पत्राचार दोनों में साफ झलकता था. सितंबर 1947 में पंडित नेहरू शेख अब्दुल्ला को एक पत्र में लिखते हैं,  ‘मेरे लिए कश्मीर का भविष्य सबसे अंतरंग निजी महत्व का है.’

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लॉर्ड माउंटबेटन ने भी की महाराजा हरि सिंह को मनाने की कोशिश

हालांकि भारत की स्वतंत्रता से पहले के दिनों में लॉर्ड माउंटबेटन ने महाराजा को भारत में शामिल होने के लिए मनाने की कोशिश की थी. महाराजा के एक पुराने परिचित होने के नाते वह जून 1947 में बड़े पैमाने पर नेहरू या गांधी को ऐसा करने से रोकने के लिए कश्मीर के लिए रवाना हुए. श्रीनगर में लॉर्ड माउंटबेटन ने सबसे पहले प्रधान मंत्री रामचंद्र काक से मुलाकात की, जिन्होंने राज्य के स्वतंत्र रहने के फैसले को दोहरा दिया. फिर माउंटबेटन ने अपने दौरे के आखिरी दिन महाराजा हरि सिंह से एक निजी मुलाकात तय करवा ली. हालांकि मुलाकात के दिन महाराजा हरि सिंह बीमारी की वजह से बिस्तर पर रहे. संभवतः लॉर्ड माउंटबेटन से मुलाकात करने से बचने का यह उनका एक तरीका था. महाराजा हरि सिंह के बेटे कर्ण सिंह अपनी आत्मकथा में अपने पिता की माउंटबेटन से मुलाकात पर परहेज करने के निर्णय को समझाते हुए लिखते हैं, ‘एक जटिल स्थिति में उठाई गई वह एक विशिष्ट सामंती प्रतिक्रिया थी. इस प्रकार व्यावहारिक राजनीतिक समझौता करने का अंतिम वास्तविक मौका खो गया.’

आजादी के बाद कश्मीर पर ऊहापोह रही बरकरार

15 अगस्त के दिन कश्मीर न तो भारत में शामिल हुआ था और न ही पाकिस्तान में. हालांकि उसने दोनों देशों के साथ सीमा पार लोगों और सामानों की आवाजाही की अनुमति देने के लिए समझौतों पर हस्ताक्षर करने की पेशकश की थी. इस पर पाकिस्तान तो समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए सहमत हो गया, लेकिन भारत ने इंतजार करने और देखने का फैसला किया. हालांकि पाकिस्तान के साथ कश्मीर के संबंध बिगड़ने लगे क्योंकि बड़े पैमाने पर मुस्लिम आबादी के कारण पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर के विलय की उम्मीद करने लगा था. गुहा ने अपनी पुस्तक में उल्लेख किया है कि जहां नेहरू हमेशा कश्मीर को भारत का हिस्सा बनाना चाहते थे, वहीं पटेल एक समय  राज्य को पाकिस्तान में शामिल होने की अनुमति देने के इच्छुक थे. यह अलग बात है कि उन्होंने 13 सितंबर को अपना विचार बदल दिया, जब पाकिस्तान ने जूनागढ़, काठियावाड़ क्षेत्र में मुस्लिम शासक वाले एक हिंदू-बाहुल्य राज्य के साथ विलय को स्वीकार करने का फैसला कर लिया. 27 सितंबर को नेहरू ने पटेल को कश्मीर में ‘खतरनाक और बिगड़ती’ स्थिति के बारे में लिखा था. ऐसी भी अफवाहें थीं कि पाकिस्तान घुसपैठियों को भेजने की तैयारी कर रहा है. उन्होंने यह भी लिखा कि महाराजा के लिए लोकप्रिय समर्थन सुनिश्चित करने के लिए अब्दुल्ला को रिहा करना अब एक जरूरत है. अब्दुल्ला ने रिहाई के तुरंत बाद ही कश्मीर में हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों की एक लोकप्रिय सरकार की मांग की घोषणा की. दूसरी ओर महाराजा हरि सिंह अभी भी एक स्वतंत्र सरकार के विचारों को पाले हुए थे. इस बारे में उस वक्त वह कहा करते थे, ‘केवल एक चीज हमारे स्वतंत्र रहने के विचार को बदल सकती है और वह यह है कि अगर एक पक्ष या दूसरा हमारे खिलाफ बल प्रयोग का फैसला करे.’

कश्मीर को लेकर संयुक्त राष्ट्र चले गए नेहरू और फिर पछताए भी

जहां तक ​​पाकिस्तान के साथ गतिरोध का सवाल है, तो नेहरू ने सुझाव दिया कि राज्य के लोग किस देश में शामिल होना चाहते हैं इसके लिए जनमत संग्रह कराया जाए. गुहा ने अपनी पुस्तक में उल्लेख किया है कि नेहरू एक स्वतंत्र कश्मीर या जम्मू रहित राज्य समेत भारत के साथ घाटी और शेष क्षेत्र पाकिस्तान को जाने के विकल्प पर भी तैयार थे. इस मामले पर कोई निर्णय नहीं होने पर 1 जनवरी, 1948 को भारत ने माउंटबेटन की सलाह पर कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने का फैसला किया, जो उस समय भारत के गवर्नर-जनरल थे. हालांकि संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान के पक्ष पर भारी ब्रिटिश समर्थन को देखकर भारत हैरान था. ऐसे में पंडित नेहरू ने इस मामले को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ले जाने पर गहरा खेद व्यक्त किया. इस बीच पाकिस्तान और भारतीय सेनाएं 1948 के बाद के महीनों में कश्मीर के उत्तरी और पश्चिमी हिस्सों में युद्ध में उलझी रहीं. अब तक कश्मीर में सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक हस्ती बन चुके शेख अब्दुल्ला ने उन संबंधों पर जोर दिया जो कश्मीर भारत के साथ साझा करता था. ऐसे में मई 1948 में उन्होंने श्रीनगर में एक सप्ताह तक चलने वाले स्वतंत्रता समारोह का आयोजन किया, जिसमें भारत सरकार की कई प्रमुख हस्तियों को आमंत्रित किया गया था. 1948 की शरद ऋतु में पंडित नेहरू ने श्रीनगर का दौरा किया. उस समय के अखबारों की रिपोर्ट में नेहरू और अब्दुल्ला को झेलम नदी में दो घंटे की सवारी करते हुए देखने के लिए हजारों लोगों की भीड़ उमड़ी थी. सैकड़ों शिकारे झील में एकत्र हुए और नेहरू पर फूलों की वर्षा की. अपनी यात्रा के दौरान नेहरू ने लाल चौक पर राष्ट्रीय ध्वज फहराया. एक ऐतिहासिक संकेत में उन्होंने कश्मीर के लोगों को अपने राजनीतिक भविष्य पर फैसला करने के लिए मतदान करने का मौका देने का वादा किया.