पीठ पर कोड़े खाते रहे और वंदे मातरम् का उद्घोष करते रहे, कुछ ऐसा ही था उनका व्यक्तित्व

देश की आजादी के लिए कुर्बानी देने वाले क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद जब पहली बार अंग्रेजों की कैद में आए तो उन्हें 15 कोड़ों की सजा दी गई थी। आजादी को लेकर उनका जज्बा ऐसा था कि वो पीठ पर कोड़े खाते रहे और वंदे मातरम् का उद्घोष करते रहे, कुछ ऐसा ही था उनका व्यक्तित्व। आइए यहां चंद्रशेखर आजाद से जुड़ी कुछ बातें जानें जो शायद आपको न पता हों।

14 साल की उम्र से चुना क्रांति का रास्ता

चंद्रशेखर आजाद का जन्म आज ही के दिन यानी 23 जुलाई 1906 को हुआ था। उनका जन्म स्थान मध्य प्रदेश के अलीराजपुर जिले का भाबरा में हुआ था।  1920 में 14 वर्ष की आयु में चंद्रशेखर आजाद गांधी जी के असहयोग आंदोलन से जुड़े थे।

ऐसे आजाद हुआ उनका नाम

14 साल की ही उम्र में वो गिरफ्तार हुए और जज के समक्ष प्रस्तुत किए गए। यहां जज ने जब उनका नाम पूछा तो पूरी दृढ़ता से उन्होंने कहा कि आजाद। पिता का नाम पूछने पर जोर से बोले, ‘स्वतंत्रता’। पता पूछने पर बोले  -जेल। इस पर जज ने उन्हें सरेआम 15 कोड़े लगाने की सजा सुनाई। ये वो पल था जब उनकी पीठ पर 15 कोड़े बरस रहे थे और वो वंदे मातरम् का उदघोष कर रहे थे। ये ही वो दिन था जब से देशवासी उन्हें आजाद के नाम से पुकारने लगे थे। धीरे धीरे उनकी ख्याति बढ़ने लगी थी।

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बचपन मे ही बन गए थे निशानेबाज थे।

चंद्रशेखर आजाद की निशानेबाजी बचपन से बहुत अच्छी थी। दरअसल इसकी ट्रेनिंग उन्होंने बचपन में ही ले थी। सन् 1922 में चौरी चौरा की घटना के बाद गांधीजी ने आंदोलन वापस ले लिया तो देश के तमाम नवयुवकों की तरह आज़ाद का भी कांग्रेस से मोहभंग हो गया। जिसके बाद पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल योगेशचन्द्र चटर्जी ने 1924 में उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों को लेकर एक दल हिन्दुस्तानी प्रजातान्त्रिक संघ का गठन किया। चन्द्रशेखर आज़ाद भी इस दल में शामिल हो गए।

चंद्रशेखर ने 1928 में लाहौर में ब्रिटिश पुलिस ऑफर एसपी सॉन्डर्स को गोली मारकर लाला लाजपत राय की मौत का बदला लिया था। आजाद रामप्रसाद बिस्मिल के क्रांतिकारी संगठन हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन (एचआरए) से जुड़ने के बाद उनकी जिंदगी बदल गई। उन्होंने सरकारी खजाने को लूट कर संगठन की क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए धन जुटाना शुरू कर दिया। उनका मानना था कि यह धन भारतीयों का ही है जिसे अंग्रेजों ने लूटा है। रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में आजाद ने काकोरी कांड (1925) में सक्रिय भाग लिया था।

…और अंतिम समय में

आज़ाद इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में सुखदेव और अपने एक अन्य और मित्र के साथ योजना बना रहे थे। अचानक अंग्रेज पुलिस ने उनपर हमला कर दिया। आजाद ने पुलिस पर गोलियां चलाईं ताकि उनके साथी सुखदेव बचकर निकल सकें। पुलिस की गोलियों से आजाद बुरी तरह घायल हो गए थे। वे सैकड़ों पुलिस वालों के सामने 20 मिनट तक लोहा लेते रहे। आखिर में उन्हेांने अपना नारा आजाद है आजाद रहेंगे अर्थात न कभी पकड़े जाएंगे और न ब्रिटिश सरकार उन्हें फांसी दे सकेगी को याद किया। इस तरह उन्होंने पिस्तौल की आखिरी गोली खुद को मार ली और मातृभूमि के लिए प्राणों की आहुति दे दी। वैसे इस तथ्य को लेकर कई विवाद भी सामने आते हैं, जिसकी अभी तक पुष्टि नहीं हो सकी है।